शादी की टॉफी
शादी के ही बाद से तो, है मेरे बदले से अंदाज़,
कभी तबियत नासाज़ कभी, मैडम है नाराज़।
होनी अनहोनी नही, कुछ बात हुई थी फ़क़त,
फिर लड़ने को तैयार वो, जाने क्यों हर वक्त।।
देख रहा था फ़िल्म मैं, टीवी पे कुछ खाश,
उसने पूछा क्या देखते, इतने लगा के आश।
मैंने कहा बस यही, दिखता टीवी पे जमी धूल,
इतने में ही लड़ पड़ी, अब किसकी थी ये भूल।।
बोली एक दिन की चलो, महंगी चीज दिखावँ,
झट ले कर मैं पहुँच गया, पेट्रोल पंप के ठावँ।
ले फिर खिंचा तानी जो, चला शुरु एक दौर,
फिर कयामत बरपा वो, पता नही किस ठौर।।
सर्राफा बाजार से अभी, गुजरे हुए दिन चार,
बोली कि गले खातिर, मेरे ले लेते कुछ यार।
झट माना कहना उनका, वो थी मेरी फुल झड़ी,
ले आया भाग कर पत्ता, खरास की उसी घड़ी।।
एक दिन बोली ले चलो, गाड़ी से किसी ओर,
जहाँ गए मुझे दिन हुए, कबसे किया न गौर।
ले गया माँ के घर उसको, शीतल अपने गांव,
छोड़े कितने दिन हुए, जिन पीपल की छांव।।
सुबह सुबह बतलाई हैं, तिवारी जी भी खूब,
आते गले लगा लेते वो, तिवराइन को बखूब।
जो आप भी करते ऐसे, तो हो जाता अनुराग,
कसम हमारी जान की, मेरे खुल जाते भाग।।
मेरी भी मंशा यही, पर कहि न हो जाये रार,
पूछ लो एक बार कहीं, तिवराइन न खाए खार।
ऐसी छोटी बातों पर, लो गये उसके फटाखे फुट,
बात बात पर लड़ भिड़े, पल ही में वो जाये रूठ।।
ये शादी नही आसां, बस बात इसी से जानो,
बूंदी का लड्डू नही, अरे दोस्त इसे पहचानो।
ये हरि मिर्ची की टॉफी है, चिद्रूप यह माना है,
नानी याद दिलाएगी, इसे चूस चूस खाना है।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०३/१२/२०१८)