सियासत
सियासत
देखो कैसा गदर मचा है, सत्ता को हथियाने की
सबको लगता सही समय, शतरंजी गोट बिछाने की।
अभी नहीं तो कभी नहीं फिर, अवसर नहीं गंवाने का
दुश्मन को भी गले लगाओ, दमखम अभी दिखाने का।
जाति धर्म की चासनी में, शब्द डुबोए जाते हैं
शर्म हया सब ताक पर रख, दांव लगाए जाते हैं।
छल कपट लोभ को अस्त्र बना, लोग बहकाए जाते हैं
दे लोभ भिन्न-भिन्न वर्गों को, उनके वोट जुटाए जाते हैं।
जाति धर्म का वास्ता दे, सौगंध खिलाए जाते हैं
नहीं सुना तो हिंसा व्यापक, कत्ल कराए जाते हैं।
खूब गालियां दिन भर चलतीं, रात बैठ कर पीते हैं
मंत्री बनने की लगी होड़ जब, दाम लगाए जाते हैं।
अब भी ‘बांटो और राज करो’, सभी मंत्र यह रटते हैं
संविधान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, नई परिभाषा गढ़ते हैं।
झूठे सपनों के चित्र दिखाकर, जनता को भरमाते हैं
घूम घूम कर घर-घर दिन भर, उनके वोट पटाते हैं।
जीत गए जब बने मिनिस्टर, तब कहां क्षेत्र में जाते हैं?
भोली जनता की पहुंच कठिन, ‘मंत्री जी व्यस्त’ बताते हैं।
कारी कोठरी अजब-गजब, सियासत क्या इसको कहते हैं?
किस पर जनता विश्वास करे, रंगे सियार जब मिलते हैं!
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।