शांता जन्म कथा भुजंग प्रयात,श्रृंगार , सार,कुण्डल छंद
भुजंग प्रयात छंद (वाचिक)
शांता जन्म कथा
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कथा राम की संत मुनियों बखानी।
अनेकों प्रकारों कहें जो कहानी।
हुए कल्प कितने किसी को पता है।
विविधता समेटे बढ़ी ये लता है।
अवध नाथ दशरथ, नि संतान राजा ।
खुशी का बजा न कभी नेक बाजा।
बताते यही लोग आगे सुधन्या।
हुई है कुशल्या व नृप से सुकन्या।
ऋषीशृंग ब्याही गई कष्ट हांता।
जिसे ज्ञानियों से मिला नाम शांता।
उसी की कहानी कहीं और पाई।
यहाँ से वहाँ से पड़ी है सुनाई।
वही आपके बीच में गा रहा हूँ।
बड़ा आचरज खास बतला रहा हूँ।
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श्रृंगार छंद
अवध के दशरथ नृप भूपाल ।
प्रजा को रखें सदा खुशहाल।
एक दिन घोडे पर असवार।
खेलने वन में गये शिकार ।
संग में सैनिक कई हजार।
करें चलते चलते जैकार ।
घोर जंगल में छूटा साथ।
लगा नृप के ना कुछ भी हाथ।
हुआ राजा भारी बेचैन ।
कहे तो कहे कौनसे बैन।
प्यास के मारे सूखा गला।
अकेला नीर खोजते चला ।।
खूब भटका भटकन के बाद।
निराशा मिटी मिटा अवसाद।
विधाता क्या किस्मत में लिखा।
सामने स्वच्छ सरोवर दिखा।
बना था सुन्दर अनुपम घाट।
धर्म के चारों कोने ठाट ।
मिटाने तन की सकल थकान।
गया जल में करने अस्नान ।
एक लंबी डुबकी ले भूप ।
हो गया नर से नारी रूप।।
घनाक्षरी छंद
सिंघ जैसी कटि नीचे तक केश झूल रहे,
कजरारे नैन पूर्ण, यौवन खिला हुआ।
बिना किये शोलह श्रृंगार सारे वदन पै,
अंग अंग सुन्दरता,पाके झिलमिला हुआ।
राजा नारी बने सोचें,कौन मैं कहाँ से आई,
कहाँ से सरोवर में, ऐसा सिलसिला हुआ।
अंग देश के नरेश, रोमपाद देखा उसे,
नजरों से नजरों में, प्रेम था मिला हुआ।
सार छंद
16/12=28
रोमपाद नारी को लेकर, आए हैं रजधानी।
अपने साथ रखा महलों में,
उसे बनाकर रानी
हँसी खुशी से समय बहुत सा,
काम केलि में बीता।
जैसे नारि सरोवर वाली,हो असली परिणीता।
जन्म एक कन्या ने पाया, सबने हर्ष मनाया।
बुला विप्र नृप दान मान से, नाम करण करवाया ।
उससे निसंतान राजा ने
पाई नाम बडाई।
आगे चलकर वही पुत्री,
शांता नाम कहाई ।
यहाँ खुशी,पर अवधपुरी में,
चिंता बादल छाये ।
गये शिकार खेलने राजा,
नहीं लौटकर आए ।
अटके भटके कहाँ जानकर ,
क्या शिकार के माने ।
मंत्री खास सुमंत्र चले हैं,
नृप का पता लगाने।
अश्व टाप को चले देखते,
भीषण वन में धाये
उसी सरोवर निकट पहुँचकर,
समाचार सब पाये ।
श्रृंगी ऋषि का जहाँ आश्रम,
धर्म वितान तना था ।
उनके कारण रम्य सरोवर,
शापित नीर बना था ।
जो स्पर्श करे इसका जल,
पाये संकट भारी ।
अनजाने में कोई नर हो,
बने तुरत ही नारी।
राजा रोमपाद भी वन में,
पिछले साल पधारे ।
पता नहीं कब आए यहाँ पर,
नृप धर्मज्ञ तुम्हारे ।
लीन ध्यान में प्रभु भक्ति के,
करता रहूँ तपस्या।
मिले नहीं दशरथ वर्ना ये,
आती नहीं समस्या।
सबने आदर भक्ति भाव से,
मुनि को शीश झुकाया।
अंगदेश जा रोमपाद को,
घटना चक्र सुनाया।
अनजाने की करनी भरनी,
रोमपाद शरमाये।
दशरथ नारी साथ शांता
श्रृंगी ऋषि ढिग लाये ।
सबने श्रृंग ऋषी से जाकर
व्यथा कथा दरशाई ।
करो शाप से मुक्त आप ही ,
हे दयालु मुनिराई।
कुण्डल छंद
13/10 अंत 2 गुरू
राजकाज ठप्प पड़े, सूनी रजधानी।
सोच सोच महलों में, सूख रहीं रानी।
दशरथ अनजाने में, बने यहाँ नारी ।
वहाँ बिना राजा के ,है प्रजा दुखारी ।
विनती मुनिराज यही,बजे धर्म बाजा ।
बना देउ फिर इनको ,राजा का राजा।
देख विनय भक्ति मुनी,मार ज्ञान साटी।
म॔त्रफूंक सींच नीर विपदा सब काटी ।
फिर से नर देह मिली,दशरथ हर्षाये ।
पुत्री को साथ लिए, लौट अवध आए।
डूबी है नगरी तब,अतिशय आमोदी।
वही सुता दी नृप ने,रोमपाद गोदी।
श्रृंगी सँग ब्याह हुआ, कथा ग्रंथ गाते ।
राम किया नेह बड़ा, बहिना के नाते ।
रामकथा है अनंत, भिन्न भिन्न मंता।
रुच रुच देशान देश ,गावें श्रुति
संता।
विप्र चरण वंद गुरू, शुभाशीष पाऊं ।
सुरसरि सम राम कथा, छंद छंद गाऊँ।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
शिव रात्रि 18/2/23