शहर का अंधेरा
ए शहर तेरे दिल में ये कैसा अंधेरा है,
उजाला बिखरा है सड़कों पर,
सड़क किनारे फिर भी कोई बैठा,
नंगा-भूखा-अपाहिज अकेला है ।
चमचमाती तेरी गाड़िया,
और बिखरती इतर की खुशबुएँ,
इस अमीरी का रंग दूसरा,
सफेद कम ये काला गहरा है ।
गाँव के हर खेत में,
किसान हाड़ मास का पुतला है,
अनाज उगाता वही,
और नोटों से भरता तेरा थैला है ।
बेशर्म और बेहयाई का कलेबर,
चढ़ा तुझ पर ज्यादा गहरा है,
मोटर कार से धुँआ उगलता तू,
गरीबों की सांसों पर लगता मौत का पहरा है ।
आलीशान दिलकश नजारे है,
तेरे मकान, महलों के किनारों के
लगता तुझे यही सच्चा जीवन,
मगर इनमें पत्थरों का वसेरा है ।
जिंदगी आवाद होती है,
धरती की धूल में सनकर,
महलों की मीनारों पर,
चील-गिद्दों का होता सवेरा है ।
तेरा वक्त है हँसले रगड़कर,
इंसानियत को तलबे से,
इसी हैवानियत की खातिर,
तू पसीजता अकेला है ।
है कोई भगवान या है कोई अल्लाह,
मालूम नही मुझको,
गाँव में वो मूक है,
तेरी गलियों में होता उसका सबेरा है.।
मेरे शहर तेरे दिल में फैला अंधेरा है…।।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07