शरीर-पुरुषार्थ-आत्मा का सम्बंध
पुरुषार्थ दो शब्दों के युग्म से निर्मित, जिसमें एक शब्द है पुरुष और दूसरा शब्द है अर्थ। पुरूष शब्द का अर्थ है आत्मा और अर्थ शब्द का मतलब है उद्देश्य या प्रयोजन। अतः जब दोनों शब्दो को मिलाकर देखें तो पुरुषार्थ का मतलब होता है आत्मा का प्रयोजन, आत्मा का उद्देश्य। अब आत्मा का क्या उद्देश्य है इसे समझना जरूरी है। आत्मा ना जीव है ना निर्जीव, अर्थात अगर आत्मा जीव होती तो इसकी शुरुआत भी होती और अंत भी किन्तु आत्मा की ना तो शुरुआत है और ना ही अंत, यह अनन्त ब्रह्मांड में अनंत समय से अनन्त ही है। और यदि आत्मा निर्जीव होती तो यह आकाशीय पिंडो की भांति कहीं अनंत ब्रह्मांड में पड़ी होती अन्य आकाशीय पिंडो की भांति। फिर आत्मा है क्या..? वास्तव में आत्मा एक ऊर्जा है एक शक्ति है किंतु ऐसी शक्ति जिसके अंदर स्वयं की चेतना है और इसी चेतना की बजह से यह जीव का रूप धारण कर अपना प्रयोजन सिद्ध करती है। (यहाँ पर हम यह नही कह सकते कि ऊर्जा में स्वयं की चेतना कैसे हो सकती है, इसके लिए सीधा सा उदाहरण यह है कि जब दिमाग मे स्वयं सोचने-विचारने की क्षमता हो सकती है तो किसी ऊर्जा में क्यो नही क्योकि दिमाग भी सामान्य खून और मांस से बना शरीर का एक मात्र अंग है,जिससे शरीर के सभी अंग बने है..)
इसलिए यह कहना कि शरीर आत्मा धारण करता है यह ठीक नही लगता बल्कि सही तो यह लगता है कि आत्मा शरीर को धारण करती है। पुरुष और महिला तो एक कुम्भार की भांति घड़ा तैयार करते है किंतु उस घड़े को घड़ा बनाता है उसमें भरने बाला जल। अगर जल हाथों में ही रुक जाता तो कुम्हार को घड़ा बनाने की जरूरत ही ना होती और फिर घड़ा अस्तित्व में ही नही आता। इसीप्रकर अगर आत्मा शरीर धारण ना करे तो शरीर भी निरुद्देश्य घड़े की माटी की तरह ब्रह्मांड में पड़ा ही रहेगा जैसे मृत शरीर पड़ा रहता है। जब माता-पिता द्वारा सृजित शरीर को आत्मा धारण करती है तब जाकर माँसल शरीर अस्तित्व प्राप्त करता है। किन्तु इस माँसल शरीर का अस्तित्व माँसल शरीर के लिए नही होता बल्कि उसमें गति देने बाली आत्मा के लिए होता है। अर्थात माँसल शरीर तो साधन मात्र है जबकि साध्य तो आत्मा है। बलिकुल कार के उस चालक की तरह जो किसी कार को चलाता है।
कार कभी भी अपने लिए कहीं नही जाती बल्कि उसे चालक ही अपने उद्देश्य के लिए हर कहीं ले जाता है। किंतु इस माँसल देह के कुछ भाग सम्पूर्ण माँसल देह पर कब्जा कर लेते है जिससे आत्मा का वह प्रयोजन पूरा नही हो पाता जिसके लिए उसने शरीर धारण किया था। यह बिल्कुल उसी प्रकार है कि कार का हैंडल,ब्रेक, क्लिच, शीशा कार चालक के आदेशों को ना मानकर स्वयं के अनुसार काम करने लगें अर्थात यदि कार चालक उत्तर दिशा में जाना चाहे तो हैंडल केबल दक्षिण दिशा में ही मुड़े, ठंडी हवा से बचने के लिए चालक शीशे बन्द करे तो शीशे बन्द होने से मना कर दें, ब्रेक रेड लाइट पर नही लगें बल्कि रेड लाइट को पार करके ट्रैफिक पुलिस के पास जाकर लगे आदि आदि..! ऐसी स्थिति में कार चालक क्या करेगा..? सीधा सा जबाब होगा कि कार से उतर जाएगा और अगर कार ने चालक से पहले ही अनुबंध कर लिया हो कि वह केबल उसी स्थिति में कार छोड़ेगा जब तक वह कार समाप्त ना हो जाए तो कार चालक क्या करेगा..? कार खराब होने की प्रतीक्षा..!
बिल्कल यही अनुबंध ही आत्मा और शरीर को घड़े और पानी के सम्बंध से अलग करता है, अर्थात आत्मा शरीर तो धारण करती है किंतु वह उस शरीर को जब तक नही छोड़ सकती तब तक कि वह शरीर समाप्त ना हो जाये। इसलिए स्थूल शरीर की आत्मा शरीर को तभी छोड़कर जाती है जब शरीर के मुख्य अंग स्वयं बुड्ढा होकर काम करना बंद कर दे, बीमारी से शरीर के अंग काम करना बंद कर दे या फिर किसी दुर्घटना से शरीर के मुख्य अंग काम करना बंद कर दें और यह ध्यान रखें कि केबल मुख्य अंग मात्र ही, जैसे दिमाग,ह्रदय,फेंफड़े, पाचन तंत्र। हड्डी टूटने से, त्वचा खराब होने से,बाल कटने से कभी भी शरीर नही मरता। किन्तु स्थूल माँसल शरीर की इन्द्रियाँ माँसल शरीर पर राज करती है और आत्मा के प्रयोजन को अर्थात पुरुषार्थ को पूर्ण नही होने देती। जिसकी बजह से आत्मा को हर बार शरीर धारण करना पड़ता है । यह बिल्कुल उसी प्रकार है जैसे आपने अपनी सफेद चादर धोबी को धोने के लिए दी किन्तु उसने उसे और गन्दा कर दिया, फिर आप उसे किसी अन्य धोबी को दोगे किन्तु वह भी उसे और गन्दा कर देगा अर्थात जब तक सफेद चादर पूर्णतः सफेद नही हो जाएगी तब तक आप उसे धोबी बदल बदल कर साफ करबाने का प्रयास करते ही रहोगे। यही हाल आत्मा का है जब तक वह पूर्ण शुद्ध नही हो जाती वह शरीर धारण करती ही रहती है इस उद्देश्य से कि अगला शरीर उसे शुध्द कर देगा किन्तु अगला शरीर उसे धोबी की भांति और भी गन्दा कर देता हैइसलिए वह फिर शरीर धारण करती है और फिर यही चक्र चलता ही रहता है।
एक प्रकार से कम्प्यूटर भाषा मे कहें तो माँसल शरीर को देह वासना का वायरस हैक कर लेता है और इंद्रियों के माध्यम से उसका अपने अनुसार प्रयोग करता है। इसी वायरस को रोकने के लिए ही सन्त पुरुषों ने जिन्होंने माँसल शरीर को साधन मानकर आत्मा से सम्पर्क साधा, मनुष्यो के लिए चार पुरुषार्थ बताये जिससे मनुष्य इस इन्द्रिय वायरस से सुरक्षित रहे और आत्मा अपने प्रयोजन को भली भांति पूरा कर सकने में स्थूल शरीर से आत्मा का साथ दे। इसके लिए संतों ने 1- धर्म, 2-अर्थ, 3-काम, 4- मोक्ष ,चार पुरुषार्थ बताये, जिनका पालन करके व्यक्ति भौतिक सुखों का लाभ लेते हुए आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त कर आत्मा के प्रयोजन को पूर्ण करता है। इसप्रकार आत्मा स्वयं को शुद्ध करने के लिए ही हर बार नया शरीर धारण करती रहती है और तब तक करती है जब तक आत्म ऊर्जा कालिख रहित ना हो जाये, सूर्य के प्रकाश की भांति ना हो जाये, जो किसी भी वस्तु पर गिरती है तो उसे प्रकाशित ही कर देती है।
अब बात आती है आत्मा का प्रयोजन क्या है..? आत्मा ने शरीर धारण क्यो किया..? और आत्मा केबल पृथ्वी पर ही शरीर धारण क्यो करती है..अनंत ब्रह्मांड में और कहीं क्यो नही..?