शम्बूक हत्या! सत्य या मिथ्या?
लेख आरभ्म करने से पूर्व मैं ज़िक्र करना चाहूंगा अपने पिताश्री का। मेरे स्वर्गीय पिताश्री शिव सिंह जी (शिवरात्रि 1938 ई.—7 फरवरी 2005 ई.) राम के बहुत बड़े भक्त थे। अक्सर कई प्रसंगों का वह विस्तारपूर्वक वर्णन करते थे। “रामचरितमानस” पिताजी का सबसे प्रिय ग्रन्थ था। पिताजी हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी व गढ़वाली बोली के ज्ञाता थे। रामचरितमानस के संदर्भ में उन्होंने एक बार कहा था कि, “तुलसीदास जी ने कवि रूप में एक-एक घटना पर अनेक उपमाएँ दी हैं। अनेक जगहों पर बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया है। तुलसी पर अपने समय का प्रभाव भी पड़ा है। उन्होंने मुग़लकाल में रामचरित मानस का सृजन किया है। उस समय की कुछ कुरीतियाँ और जात-पात से सम्बन्धित दोष आना स्वाभाविक है; क्योकिं लेखक भले ही किसी और युग के ग्रन्थ पर कार्य करे। वह अपने युग के संदर्भ, दृष्टिकोण रखता ही है।”
मैंने पिताश्री से शम्बूक ऋषि के वध पर चर्चा की थी उन्होंने कुछ घटनाओं से स्पष्ट किया था कि यह मिथ्या प्रसंग है। उत्तर काण्ड महर्षि वाल्मीकि जी द्वारा रचित नहीं है। राम समदर्शी थे, सबको एक समान देखने वाले। ये बाद की शताब्दियों में किसी हिन्दू विरोधी विचारधारा और षड्यंत्र रचने वाले विद्वानों का कार्य है। ईसा पूर्व जैन, बौद्ध धर्म लोकप्रिय हो चुके थे! वे भी संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे! पाली-प्राकृत (प्राचीन हिन्दी है। यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में एक बोली) का उदय संस्कृत के अपभ्रंश से ही हुआ! हो सकता है उस काल खण्ड में किसी ने उत्तरकाण्ड रचा हो! फिर 700–800 वर्ष मुस्लिम (इस्लाम) शासक यहाँ रहे, डेढ़-दो सौ साल अंग्रेज़ (ईसाई) राज रहा…. भारतीय संस्कृति विशेषकर हिन्दू संस्कृति कई सदियों से ग़ुलाम ही रही…. हमें हर तरीके से मिटाया गया! सांस्कृतिक, राजनैतिक व धार्मिक आजादी तो हमेशा ही तबाह-ओ-बरबाद रही! लार्ड मैकाले के आने के बाद, वामपंथी तथा अंग्रेज़ लेखकों ने हिन्दुओं की शक्लो सूरत को बिगाड़ने की काफी कोशिश की! आज हम जो पढ़ रहे हैं नहीं जानते हैं कि ऐसा सबकुछ अतीत में हुआ हो या रहा हो! इसे पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में ख़राब करने का काम बड़ी तेज़ी से हुआ है! उत्तर काण्ड भी इससे अछूता नहीं है!
पिताश्री की आशंकायें निर्मूल नहीं थीं! अब अनेक पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के आलेखों के माध्यम से हम अतीत में हुईं ग़लतियों को आसानी से पकड़ सकते हैं! जो हिन्दू धर्म के मर्मज्ञ विद्वानों द्वारा समय-समय पर लिखे गए हैं! उस वक़्त की किताबें ही, झूठ को सच के आइने में तोड़ देती हैं! सोशल मिडिया, इंटरनेट ने राह और आसान कर दी है! आइये उत्तर काण्ड के शम्बूक (अथवा गाँव देहात में “सम्भुक” भी बोला जाता है) वध को इसी कसौटी में तोलें…..
लेख आगे बढ़े, उससे पूर्व उस घटना का वर्णन यहाँ करना ज़रूरी है, जिससे सुधि पाठक स्वयं निर्णय लें कि क्या यह सत्य हो सकता है? या यह बड़ी चालकी से श्री राम जी को बदनाम करने की बड़ी साजिश है। उत्तर काण्ड में ‘शम्बूक वध’ की मूर्खतापूर्ण संक्षिप्त कथा इस प्रकार है:—
किसी ब्राह्मण का इकलौता पुत्र मर गया। अतः ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर रखा और तेज-तेज विलाप करने लगा। उसने जो आरोप लगाया वह अत्यधिक हास्यपूर्ण है। ब्राह्मण रोते हुए बोला, “मेरे एकमात्र पुत्र की अकाल मृत्यु का कारण, राज का कोई दुष्कृत्य हैं!”
अतः तत्काल न्याय दरबार की व्यवस्था की गई। राजा रामचंद्र जी महाराज ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। माननीय ऋषि—मुनियों की चुनी हुई सभा-परिषद् ने इस पर गहनता से विचार किया और एकमत होकर अपना निर्णय दे दिया। जो यूँ था—”राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं!”
उस सभा में उपस्थित नारद जी बोले— “राजन! किसी शुद्र का तप में प्रवत होना महान अधर्म, अनुचित व सर्वथा अनैतिक हैं। निश्चय ही आपकी राज्यसीमा के भीतर कोई शुद्र तप कर रहा हैं। उसी दोष के कारण ब्राह्मण कुमार की मृत्यु हुई है!”
तब राजा राम बोले, “तो ऋषिराज बताएँ, हमें क्या करना चाहिए?”
“हे राजन, आप स्वयं अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कहीं भी वह शूद्र तप कर रहा हो उसे प्राणदण्ड दें।” नारद जी ने बिना विचलित हुए कहा।
ये सुनते ही राजा रामचन्द्र जी बिना अन्न-जल ग्रहण किये हुए ही, लंका युद्ध में जीते हुए रावण के ‘पुष्पक विमान’ पर सवार होकर, उस तपस्वी शूद्र की खोज में निकल पड़े। उड़ते-उड़ते पुष्पक विमान जब दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में पहुँचा तो राजा रामचंद्र जी क्या देखते हैं कि सरोवर पर कोई तपस्वी तपस्या कर रहा है। विचित्र बात यह थी कि वह तपस्वी पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था?
उसे देखकर राजा रामचंद्र जी ने पुष्पक विमान को उस तपस्वी के समीप रुकने का निर्देश दिया। तपस्वी के पहुँचने पर राजा ने हाथ जोड़कर कहा, “हे तपस्वी, तुम धन्य हो। आप अति उत्तम तप का पालन कर रहे हैं!”
किसी को निकट पाकर वह तपस्वी सीधा होकर आसन जमाकर बैठ गया।
“मैं दशरथनन्द अयोध्या का राजा राम हूँ। आपका परिचय जानने को उत्सुक हूँ। आप किस जाति में उत्पन्न हुए हैं?”
यह सुनकर वह तपस्वी घबरा गया। वह चुप रहा।
अच्छा, परिचय नहीं देना चाहते तो कोई बात नहीं! आप यह बताएँ, इस घोर तप के मध्यम से आप किस वस्तु के पाने की लालसा करते हैं? आप अपनी तपस्या से प्रसन्न होने वाले देव से कौन सा वर प्राप्त करना चाहते हैं? देवलोक या कोई अन्य वस्तु? किस वस्तु को पाने के लिए आप इतनी कठोर तपस्या कर रहे हो, जो दूसरों ऋषि-मुनियों के लिए करना असम्भव हैं?
वह तपस्वी यथावत उसी जड़ अवस्था में चुपचाप रहा।
“बताओ हे तापस! निसंकोच कहो। जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, राजा होने के नाते मैं उसे जानने को व्यकुल हूँ। इसके अलावा सत्य बताओ! आप कोई ब्राह्मण हो? अजेय क्षत्रिय हो? तृतीय वर्ण के वैश्य हो? या फिर कोई शुद्र हो? आपकी चुप्पी मुझे विचलित किये दे रही है। अब चुप्पी तोड़िये! और मेरा मार्गदर्शन कीजिये!”
समदर्शी श्री राम का यह वचन सुनकर धरा की ओर मस्तक लटकाये हुआ वह तपस्वी प्रथम बार अपनी चुप्पी तोड़ता हुआ बोला, “हे राजाराम ! मैं आपसे मिथ्या नहीं बोलूँगा। देवलोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लम्बी अवधि से तप में लीन हूँ। मैं जाति से ‘शुद्र’ हूँ। मुझे ‘शम्बूक’ के नाम से संसार में जाना जाता है।”
इतना सुनकर राम जी क्रोधित हुए और उन्होंने म्यान से चमचमाती तलवार खींच ली। बिना एक क्षण विलम्ब किया उन्होंने शम्बूक का सर धड़ से उतार दिया दिया।
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तो उपरोक्त कथा सुनकर सबसे पहले दो प्रश्न उठते हैं कि
पहला—क्या किसी शुद्र के तपस्या करने मात्र से किसी ब्राह्मण कुमार की मृत्यु हो सकती हैं? ऐसा ज़िक्र किसी भी अन्य किसी धार्मिक पुस्तकों में नहीं मिलता?
दूसरा—क्या राजा राम मात्र किसी शूद्र द्वारा तपस्या करने पर उसकी हत्या कर देंगे? ये हास्यपूर्ण बात तो गले से नीचे ही नहीं उतरती!
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ख़ैर आलेख को आगे बढ़ाते हैं! यहाँ एक श्लोक देखें:—
“चतुर्विशत्सहस्त्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः|
तथा सर्गशतान् पञ्च षट् काण्डानि तथोत्तरम|”
महर्षि वाल्मीकि रामायण के “बालकाण्ड” के 4/2 यानि उपरोक्त श्लोक का अर्थ स्पष्ट है—”रामायण में 24,000 श्लोक, 500 सर्ग और 6 काण्ड हैँ। क्रमशः—
// 1. // बालकाण्ड
// 2. // अयोध्याकाण्ड
// 3. // अरण्यकाण्ड
// 4. // किष्किन्धाकाण्ड
// 5. // सुंदरकाण्ड
// 6 . // लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड)
उपरोक्त ये सभी महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचे गए हैं। जबकि शम्बूक का वर्णन सातवें कांड में मिलता है। जो कि महर्षि वाल्मीकि ने रचा ही नहीं? महर्षि वाल्मीकि ने अपनी संस्कृत रामायण लिखते समय ही बता दिया था कि रामायण में कितने कांड, सर्ग व श्लोक हैं क्योकिं वे रामायण के रचियता थे।पिताश्री ने रामायण के उक्त श्लोक को मुझे दिखाया था।
लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि आज की रामायण में 25000 श्लोक, 658 सर्ग और 7 काण्ड हैं? यानि 1000 श्लोक, 158 सर्ग और एक अतिरिक्त काण्ड “उत्तरकाण्ड” किसी और का किया धरा है? वह कौन हो सकता है? जिसने राम को ही नहीं बल्कि रामायण के मूल रचियता महर्षि वाल्मीकि से भी छल किया है! यदि सातवाँ काण्ड किसी और की कारीगरी थी, तो उस कवि को अपना नाम डालना चाहिए था। लेकिन सातवाँ काण्ड रचने वाले ने इसलिए अपना नाम नहीं दिया क्योकिं वह चाहता था कि यह उसी रामायण का हिस्सा लगे जो महर्षि वाल्मीकि ने रची। इसके द्वारा उस कलाकार ने अपना जाति द्वेष का एजेंडा चलाया और सातवा कांड रामायण में मिलाकर मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम को एक शूद्र की हत्या करने का अपयश मिले! उनकी मर्यादा खंडित हो!
जबकि राम का चरित्र किसी भी भेदभाव से परे था। जो दो बातों से स्पष्ट होता है।
एक—वाल्मीकि रामायण में श्री रामचन्द्र जी महाराज द्वारा वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना (बाल कांड 1/37-40) …; यदि राम संकीर्ण हृदय के होते तो निषादराज (शूद्र आज के संदर्भ में दलित) प्रभु राम (क्षत्रिय आज के संदर्भ में ऊँच जाति के ठाकुर) को भोजन नहीं करवाते! इससे ये भी स्पष्ट होता है कि त्रेता युग में जात-पात को इतना महत्व नहीं दिया जाता था।
दो—शबर (कोल/भील आदिवासी) जाति की शबरी से बेर खाना [(अरण्यक कांड 74/7); आज के संदर्भ में ‘भील’ घोर निकृष्ट दलित जाति] यहाँ यह पूरी तरह सिद्ध करता हैं कि शुद्र जाति से उस काल में कोई भेद-भाव नहीं करता था। ऐसे में प्रभु राम पर जो भक्ति में भक्त के साथ भावनाओं में बह जाते थे। वे किसी का अकारण जाति के नाम पर वध कर दें। उचित नहीं जान पड़ता है। शबरी के विषय में महर्षि वाल्मीकि स्वयं लिखते हैं कि शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी। (अरण्यक कांड, 74/10) इससे यह सिद्ध होता है, कि शुद्र को रामायण काल में तपस्या करने पर किसी भी प्रकार की कोई रोक नहीं थी।
अब्रवीच्च तदा रामस्तद्विमानमनुत्तमम् |
वह वैश्रवणं देवमनुजानामि गम्यताम् ||
महर्षि वाल्मीकि रामायण का षष्ट काण्ड अर्थात “युद्ध काण्ड” 127-59 में स्पष्ट लिखा है … श्लोक का अर्थ है— “तब श्री राम ने पुष्पक विमान को आदेश किया कि कुबेर को ले जाइये| मैं कुबेर को जाने की अनुमति देता हूँ|”
उपरोक्त श्लोक को दर्शाने का प्रयोजन यह है कि, जिसने सातवाँ काण्ड यानि उत्तर काण्ड रामायण में जोड़ा, उसे ये ज्ञात नहीं था कि प्रभु राम का पुष्पक विमान लेकर शम्बूक को खोजना एक सौ प्रतिशत असत्य कथन है। यहाँ वो होशियार कलाकार बेनक़ाब हो गया है क्योकिं पुष्पक विमान तो श्री राम जी ने अयोध्या वापिस आते ही, उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था। यह बात उपरोक्त श्लोक (युद्ध कांड 127/59) में वर्णित है।
इस सम्भावना को भी नहीं नकारा जा सकता है कि ईसा पूर्व जब बौद्ध धर्म के विस्तार से वेदों का ज्ञान लोप होने लगा था। तब कर्म आधारित मनु स्मृति को जन्म आधारित बनाने वाले कर्मकाण्डियों द्वारा वेद विरोधी भावनाओं को रामायण में स्थान दिया गया हो! इसी के चलते जातिवाद का पोषण करने वाले जीवों ने अतिरिक्त श्लोकों को मिला दिया हो, उस काल खण्ड में महर्षि वाल्मीकि “रामायण” में भी इसी अशुद्ध जातिगत शम्बूक पाठ को मिला दिया गया हो!
गोस्वामी तुलसीदास कृत और वाल्मीकि द्वारा रचित “उत्तरकाण्ड” की संक्षिप्त जानकारी
उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार कह सकते हैं। आदिकवि वाल्मीकि जी के नाम से प्रचलित रामायण के “उत्तरकाण्ड” में लंकापति रावण और रामभक्त हनुमान जी के जन्म की कथा; गर्भवती देवी सीता का राज्य निर्वासन; कुमार लव-कुश का जन्म; तीन राजाओं नृग, निमि, ययाति की उपकथायें; रामराज्य में कुत्ते का न्याय की कथा; राजा राम के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान; उस यज्ञ में राम के पुत्रों का कुमार लव व कुश के द्वारा संस्कृत “रामायण” का गायन जो मूलतः महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचित थी; सीता का पृथ्वी रसातल में प्रवेश; कुमार लक्ष्मण का परित्याग; अंत में श्रीराम के महाप्रयाण के उपरान्त उत्तरकाण्ड का समापन।
वहीँ इन्हीं बातों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के “उत्तरकाण्ड” में कुछ यूँ प्रस्तुत किया है कि चौदह वर्षों की अवधि को समाप्त कर प्रभु श्रीराम, देवी सीता, भ्राता लक्ष्मण व युद्ध के समस्त सहयोगी मित्रों के साथ अयोध्या नगरी में वापस पहुँचे। जहाँ नगरवासियों द्वारा घर-घर दीप जलाकर श्रीराम जी का भव्य स्वागत हुआ। तीनों माताओं कौशल्या, केकयी व सुमित्रा तथा भ्राता भरत-शत्रुघ्न सहित सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वैदिक मंत्रोउच्चारण और शिवस्तुति के साथ श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ। ततपश्चात समस्त अभ्यागतों को सुन्दर विदाई दी गई। राजा रामचंद्र ने प्रजाजनों को जीवन मूल्यों व उच्च मानवीय आदेशों का पालन करने का उपदेश दिया। अन्ततः प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। रामराज्य एक आदर्श राज्य बन गया। सभी चारों भाइयों को दो-दो पुत्ररत्न प्राप्त हुये।
गुरू वशिष्ठ व उनके शिष्य श्रीराम संवाद; नारद जी का अयोध्या प्रवेश; प्रभु के यशोगान की स्तुति; भगवान शिव व माँ पार्वती संवाद, गरुड़ मोह और गरुड़ जी का काकभुशुंडी जी के मुखारबिन्द से श्रीराम कथा एवं श्रीराम महिमा सुनना–सुनाना; और काकभुशुंडी जी का विस्तार से वर्णन किया गया है। जिसमें गरुड़ के सात प्रश्न व काकभुशुंडी जी के उत्तर आदि विषयों का भी विस्तृत वर्णन तुलसी द्वारा किया है।
अवधी बोली व संस्कृत भाषा में रची दोनों रामायणों के ‘उत्तरकाण्ड’ में कुछ बातें समान हैं तो कुछ बातों को समय, काल खंड की मान्यताओं, मर्यादाओं व रीतियों में आये बदलाव के साथ ‘उत्तरकाण्ड’ में सुंदरता व दक्षता के साथ कुशलता पूर्वक पिरोया गया है। “रामायण” को अनेक कालखण्डों में अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों ने भी अपनी अपनी भाषाओँ में अपने अपने तरीक़े से रचा है! उनका भी अध्धयन होना ज़रूरी है ताकि शम्बूक वध में कुछ नयी जानकारियाँ और सामने निकलकर आ सकें! संस्कृत में ही रामायण पर अनेक कवियों ने नाटक भी कवियों ने रचे हैं! उन्हें पढ़ना भी आवश्यक है! बाक़ी ज्ञान, शोध, सुधार आदि कार्यों के दरवाज़े हमेशा ही ज्ञानियों के लिए खुले रहते हैं! शेष फिर कभी!
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