शब्द
क्यों खामोश हैं
तुम्हारे शब्द
कोई आवाज़ नहीं आ रही
एक लंबे अंतराल से
क्यों घुंट रहे हैं
तुम्हारे शब्द
बाहर आने की प्रत्याशा में
मुखरित हो जाने की आशा में
जुबां पर नृत्य कर
धीरे से खामोश हो जाते हैं
स्वर बनकर फूटना चाहते हैं
सिसकते हुए तुम्हारे शब्द
कंठ से जिह्वा तक तो आते हैं
मुख अनुमति नहीं देता
ध्वनि बनकर फूटने को
तुम्हारे शब्द बेचैन होकर
तड़पकर
धीमे से हृदय की अतल गहराईयों में
खामोश हो जाते हैं।
आँखें कोशिश तो करती हैं
पर लाचार हो जाती हैं
कंठ से निकले शब्दों के सामने
ये निरीह सी लगती हैं
शब्द तो शब्द ही होते हैं
शब्दों की मधुरता और ध्वनि
परमानंद का जीवंत अनुभव कराते हैं
मत रोको शब्दों को
जंज़ीरों में उनको मत जकड़ो
उनकी आज़ादी उन्हें लौटा दो
शब्दों को जीने दो
उन्हें मुखरित होने दो
ध्वनित होने दो
अपने शब्दों को
वाचाल हो जाने दो।
–अनिल कुमार मिश्र,रांची,झारखंड