शब्द-वीणा ( समीक्षा)
समीक्ष्य कृति: शब्द-वीणा ( कुंडलिया संग्रह)
कवयित्री: तारकेश्वरी ‘सुधि’
प्रकाशक: राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर
प्रकाशन वर्ष: 2022 ( प्रथम संस्करण)
मूल्य- ₹150/-
भावों का इंद्रधनुष- शब्द-वीणा
कुंडलिया सदैव से ही कवियों का प्रिय छंद रहा है। इस छंद में अनेकानेक कवियों / कवयित्रियों ने अपनी सटीक भावाभिव्यक्ति की है। आज कुंडलिया में मात्र नीति ,न्याय और भक्ति की ही अभिव्यक्ति नहीं होती, अपितु इन सबके साथ-साथ समसामयिक विषयों को भी अपने अंदर समेटा है अर्थात इस छंद के अभिव्यक्ति की परिधि विस्तृत और व्यापक होती जा रही है। शब्द-वीणा तारकेश्वरी ‘सुधि’ की एक कुंडलिया कृति है। इसमें कवयित्री ने अपने 245 कुंडलिया छंदों को शामिल किया है। इसकी भूमिका लिखी है कुंडलिया छंद के सशक्त हस्ताक्षर आदरणीय त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी ने।
दुनिया की आधी आबादी यदि हताश-निराश होगी तो किसी भी समाज का कल्याण संभव नहीं है।लोगों की परवाह किए बिना नारी को आगे आना होगा और अपने सपनों को पूर्ण करने के लिए उद्यत होना होगा। सम्मान की प्राप्ति तभी संभव होती है जब हम जीवन में उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ,अपनी पहचान बनाते हुए, समाज को सकारात्मक दिशा देने में सफल होते हैं।
आहत हो तेरा नहीं, हे नारी! सम्मान।
चूल्हे-चौके से अलग,यह दुनिया पहचान।।
यह दुनिया पहचान, लगेगी मुश्किल कुछ दिन।
लेकिन मन में ठान,कार्य सब होंगे मुमकिन।
पूरे कर निज ख्वाब, सभी इच्छा सुधि चाहत।
बन जाए पहचान, नहीं होगी तू आहत।। ( पृष्ठ-68 )
महिलाएँ केवल घर ही नहीं संभालतीं वरन परिवार की आवश्यकतानुसार जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से बाहर भी काम करती हैं।बाहर काम करते हुए उन्हें दोहरी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है- मातृत्व और श्रम-साधना साथ-साथ। ऐसे ही एक दृश्य बिम्ब की सटीक अभिव्यक्ति ‘सुधि’ जी ने अपने छंद में की है।
माता सिर पर लादकर, ईंट गार का भार।
बाँहों में बच्चा लिए, रही उसे पुचकार।
रही उसे पुचकार, धूप सर्दी सब सहती।
उर में ममता भाव,प्यार की नदियाँ बहती।
रोए सुधि संतान, हृदय विचलित हो जाता।
छोड़ सकल फिर काज,लगाती उर से माता।।( पृष्ठ-77)
अंतिम जन की पीड़ा को न केवल समझना आवश्यक है वरन उसको दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाने भी अनिवार्य हैं। सरकार और समाज द्वारा गरीबों की बात तो की जाती है परंतु आवश्यक कदम नहीं उठाए जाते। किसी भी समस्या का समाधान मात्र बातों से नहीं होता, धरातल पर कार्य करने की जरूरत होती है। जिम्मेदार लोग समस्या समाधान के नाम पर अंधे- बहरे और गूँगे हो जाते हैं।
आखिर व्यथा गरीब की, यहाँ समझता कौन।
किसे कहें कैसे कहें, अंध बधिर सब मौन।।
अंध बधिर सब मौन, नौकरी पास न इनके।
सह जाते फटकार, स्वप्न उड़ते ज्यों तिनके।
कहती है सुधि सत्य, हड़पने में सब शातिर।
समझ सकें जो पीर, कहाँ इंसां वे आखिर।। (पृष्ठ-42)
बच्चों के खेल सदा निराले होते हैं और देखने वाले को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। देखने वाला व्यक्ति कुछ समय के लिए ही सही ,अपने बचपन में भ्रमण करने लगता है। एक छोटी-सी बच्ची अपनी सखियों के साथ कौन-कौन से खेल खेलती है,इसका शब्द- चित्र कवयित्री के द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
छोटी-सी वह बालिका,खेल रही है खेल।
भाँति -भाँति की कल्पना,सत रंगों का मेल।।
सत रंगों का मेल, कभी मम्मी बनती है।
बने डाॅक्टर, नर्स, पुष्प सुंदर चुनती है।
कहती है ‘सुधि’ सत्य, बना छोटी सी रोटी।
भरकर सबका पेट, बालिका हँसती छोटी।।
‘स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत’ माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का एक महत्वाकांक्षी मिशन है जिसकी अलख घर-घर में जगाने में वे सफल हुए हैं। समाज का प्रत्येक व्यक्ति आज न केवल स्वच्छता के महत्व को समझने लगा है वरन वह इस अभियान से जुड़ा हुआ भी है। कवयित्री भी अपने छंद में इस समसामयिक विषय को उठाकर लोगों को जागरूक करने का प्रयास करती है।
भारत के घर स्वच्छ हों, गलियाँ कचरा मुक्त।
देश साफ सुंदर बने, कोशिश हो संयुक्त।।
कोशिश हो संयुक्त, असर तब ही छोड़ेगी।
चलकर थोड़ी दूर, अन्यथा दम तोड़ेगी।
कहती है ‘सुधि’ सत्य, रखो मन में यह हसरत।
रोगों से हो मुक्त, देश यह अपना भारत।। (पृष्ठ-24)
आम और खास सभी तरह के लोगों के लिए प्रकृति के मनोरम रूप सदैव आकर्षित करते रहे हैं। जनसामान्य जहाँ सुंदर प्राकृतिक रूप को दखकर आह्लादित हो उठता है, उसके होठों पर मुस्कराहट तैरने लगती है, वहीं कवि-हृदय मन में उठने वाले भावों को काव्य-रूप में परिणत कर देता है। इंद्रधनुष की छटा से युक्त ‘सुधि’ जी का एक छंद –
कुदरत ने बिखरा दिए,विविध भाँति के रंग।
थोड़ा सा जी लें सभी, इन्द्रधनुष के संग।।
इन्द्रधनुष के संग,प्रकृति से प्रेम करेंगे।
मधुर-मधुर संगीत, राग दिल में भर लेंगे।
कहती है ‘सुधि’ सत्य, बाँधता है अम्बुद खत।
रखना मनुज सहेज, कीमती है ये कुदरत।।
शब्द-वीणा के छंदों पर समग्रता में दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि कवयित्री ने जहाँ नीतिपरक और भक्तिभाव से संपृक्त छंदों की सर्जना करके समाज को सार्थक और सुन्दर संदेश देने का प्रयास किया है तो वहीं दूसरी ओर समाज की विसंगतियों और विद्रूपताओं को भी अपना विषय बनाकर कवि धर्म का निर्वहन किया है।
कवयित्री ने सहज-सरल भाषा में भावाभियक्ति कर आम पाठकों को कृति की ओर आकृष्ट करने का एक सफल प्रयास किया है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, उसे पाण्डित्य-प्रदर्शन का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए। कवयित्री ने हिंदी और अरबी-फारसी के आम जीवन में प्रचलित शब्दों का प्रयोग सटीकता के साथ किया है। वैसे ‘छंदबद्ध रचना में बहुभाषिक शब्दावली का भंडार कवि के रचना-कर्म को आसान बना देता है। अपनी भाषा के प्रति लगाव और सम्मान सदैव श्लाघ्य होता है परंतु किसी भाषा विशेष के शब्दों के प्रयोग के प्रति दुराग्रह उचित नहीं होता।’
कवयित्री ने कुंडलिया छंद के शिल्प का निर्वहन एक कुशल छंद शिल्पी की भाँति किया है। सभी छंद त्रुटिहीन एवं सटीक हैं।सुधि जी के छंदों की भाषा मुहावरेदार और अलंकारिक होने के साथ-साथ चित्रात्मकता से युक्त है।बिम्बात्मकता इनका एक विशिष्ट गुण है जो भावों को आत्मसात करने में सहायक सिद्ध होता है।
निश्चित रूप से इस ‘शब्द-वीणा’ की झंकार साहित्य जगत को सम्मोहित करेगी और अपना यथेष्ट स्थान प्राप्त करेगी। इस बहुमूल्य कृति रूपी मोती के शामिल होने से कुंडलिया कोश अवश्य समृद्ध होगा।
समीक्षक
डाॅ बिपिन पाण्डेय