शब्दों के कारवाँ
किताबें नहीं चाहतीं
मँहगी सुन्दर अलमारी में
शो पीस बना कर
सजा दिया जाना,,,,
अनपढ़े, अनछुए, अनदेखे
रह जाना ,,,,
जब कोई बड़े शौक़ से
किसी नयी किताब को
लेता है अपने हाथ में
तब नित नए भावों से रोशन
शब्दों के कारवाँ
पन्ने दर पन्ने
उँगलियों से एहसास बन
दौड़ने लगते हैं रग-रग में
बहने लगते हैं ह्वदय तक
हृदय से आत्मा तक
जोड़ देते हैं कुछ नया
शख़्स से शख़्सियत हो जाने के
एक लंबे सफ़र में ,,,,,
– क्षमा ऊर्मिला