शब्दों के एहसास गुम से जाते हैं।
शब्दों के एहसास गुम से जाते हैं,
खामोशियों की चादरों में ये मुस्कुराते हैं।
शोर का तो बवंडर सा उठता है, पर
जाने क्यों होंठों को ये दगा दे जाते हैं।
अनचाहे वाक्यों के मध्य ये छिप कर आते हैं,
और खुद को व्यंग्य बता, खुद को हीं समझाते हैं।
कभी कभी आंखों से भी छलक जाते हैं,
और आंसूओं का सैलाब लिए चले आते हैं।
फिर यथार्थ की आग में जल कर,
अपने अस्तित्व का सौदा कर आते हैं।
शब्दों से होंठों के इस सफर में जाने कितने पड़ाव आते हैं,
कभी ये सत्य की स्याही तो कभी झूठ की कलम उठाते हैं।
इक नई हंसी की सौगात दे जाते हैं,
फिर एक हीं पल में उस दर्द का एहसास भी करवाते हैं।
ये खामोशियां जाने कितने किस्सों की आवाज बन कर आते हैं,
और मेरे शब्दों को मौन की राह में भटकाते हैं।