शब्दों की खेती
शब्दों की है खेती अपनी शब्दों की है क्यारी,
रंग-बिरंगे शब्द खिले हैं,अक्षर क्यारी-क्यारी।
बीज शब्द का बोता हूँ पाता शब्दों की काया,
बिन काया के घायल कर दे, शब्दों की है माया।
मह-मह करती धरती सारी, शब्दों की उजियारी।
अक्षर-अक्षर फूल खिले हैं जगमग दुनिया सारी ।
चिंतन का हूँ खाद डालता, सोच समझ का पानी,
चुन-चुनकर खरपात हटाता, उग आते अभिमानी।
इधर-उधर के शब्दों की करता हूँ खूब निकौनी,
बैठे रहते हैं जो मन में बनकर बाबा मौनी।
कुछ तो ऐसे ढीठ शब्द हैं उग आते अनजाने,
सुन्दर रूप रतन शब्दों को कोंचते है मनमाने ।
ऐसे बेढंगे शब्दों की करता खूब खिंचाई,
समय-समय पर सुशब्दों की करता खुब सिंचाई।
तब जो उगता अन्न शब्द का बह्म-भारती होता,
छन्दबद्ध या मुक्तबन्द वह मन का पाती होता।