” शब्दों का महासंग्राम “
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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हमारी धारणाओं की दिशा द्रिग्भ्रमित होने लगी है !…. हम ज़माने के साथ चलने से कभी -कभी कतराने क्यों लगते हैं ?…… भाषाओँ में विभिन्य अन्य भाषाओँ के शब्दों का प्रचलन क्यों होता है ? …..महासंग्राम की काली घटा छा जाती है ! ….आलोचनाओं के पहाड़ टूट पड़ते हैं !…… हिंदी बोलते समय या लिखते समय हिंदी ही शब्दों का प्रयोग होना चाहिए !…. इन बंधनों में हमें घुटन महसूस होती है ! भाषा की धारा गंगा – प्रवाह भांति होनी चाहिए ..शब्द कोई कहीं से आये ..गति अवरोधक ना बने !…… प्रचलित शब्दों के अनुवादों से हमारी भंगिमा ही प्रायः -प्रायः धूमिल पड़ जाती है !..’स्टेशन ‘ ,’बर्थ ‘,वेटिंग रूम ‘,इत्यादि शब्दों के रूपांतर से हम कभी -कभी उब जाते हैं !….कुछ शब्दों का प्रयोग इस भांति कहीं -कहीं किये जाते हैं जो हमलोगों के बीच साधारणतः प्रयुक्त नहीं होते …’किट लगाना ‘…राशन लेकर चढना ‘…..कट मरना ‘….इत्यादि शब्दों का प्रयोग सेना में किये जाते हैं …और इन शब्दों को यदि रूपांतरण के श्रृंगारों से सजा देंगे तो ये निष्प्राण हो जायेंगे !…हमें भाषा को जनप्रिय बनाने का बीड़ा उठाना चाहिए…….. .ना कि इन छोटी -छोटी बातों पर हमें उलझना चाहिए !
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
एस ० पी ० कॉलेज रोड
नागपथ
दुमका
झारखण्ड
भारत