शतरंज के मुहरे
सूरज के गिर्द अपनी धुरी पर धरती हर पल घूमती है
भ्रमण -पथ पर कभी इसके पास आती, दूर जाती है l
दिन रात होती है, मौसम बदलता है, ऋतु बदलती है l
कभी सर्दी, कभी गर्मी, कभी यहाँ बरसात आती है l
आकर्षण आँखों का ले आता है मुझे तुम्हारे सामने
दक्षिण ध्रुव आता, जैसे चुम्बक के उत्तर ध्रुव के सामने l
फितरत और कुदरत में बहुत फर्क होता है मेरे यारों
फितरत आदमी की होती है, कुदरत प्रकृति है मेरे यारोंl
फुर्सत नहीं मिलती, यही फितरत है हर वक्त उसकी
कहकर भी नहीं मिलता, जहाँ से रुख़सत हो जाता है l
हम जहाँ हैं, जैसे हैं, वैसे ही रहने दो यहाँ अब मुझे
घड़ियाली आंसू बहाओं न छिपकली रंग दिखाओं मुझेl
नशा जब चढ़ कर उतरता है, आदमी होश में आता है
रिश्ते, अपनापन, दौलत तबतक दरिया में बह जाता है l
चेतक की चाल तो यहाँ दूर से भी पहचानी जाती है
सोने की खरीदारी में सदा कसौटी ही काम आती है l
दिल्ली का तो दिल दरिया है, गुलदस्ता कभी न देती है
ज़माने के बाद यमुना अपना किनारा खोजने आती है l
शतरंज के मोहरे से खिलाड़ी हर वक्त चाल बदलता है
हार जाता है आदमी,जब साथी को अनाड़ी समझता है
शतरंज तो शह और मात का खेल है मेरे दोस्तों
घोड़े चाल बदलते रहते हैं, बिसात तो वही रहती है l
🌹❤️🌹👌🌹❤️🌹❤️🌹❤️🌹❤️🌹❤️@रचना – घनश्याम पोद्दार
Munger