शंकरलाल द्विवेदी काव्य
जब भी कजरारे मेघों की पलकें भीग-भीग जाती हैं-
लगता है, फिर से मधुवन में आज कहीं राधा रोई है।
कलियों की कोमल पाँखुरियाँ जब भी उलझी हैं काँटों में,
ऐसा लगा कि भरी सभा में लाज द्रौपदी ने खोई है।।
-सुप्रसिद्ध कविता ‘प्यार पनघटों को दे दूँगा’ से उद्धृत