वक़्त गुज़रा तो नहीं लौट कर आने वाला
बात क्या है के बना प्यार जताने वाला
घाव सीने में कभी था जो लगाने वाला
अब मेरे दिल में जो आता है चला जाता है क्यूँ
काश जाता न कभी याँ से हर आने वाला
ख़्वाब तो देखा मगर उसको न देखा मैं कभी
हाँ वही शख़्स था जो ख़्वाब दिखाने वाला
उसका चोरी से भी दीदार कहाँ मुम्क़िन है
जब हुआ ख़ुद का ही दिल शोर मचाने वाला
इश्क़ आतिश है मगर फिर भी नहीं उज़्र मुझे
है जो शोला ही उस आतिश पे चलाने वाला
जिसको जाना था गया पल को भी ठहरा न भले
चश्म से जाता रहा अश्क बहाने वाला
यार ग़ाफ़िल हो सँभलना तो सँभल जा अब भी
वक़्त गुज़रा तो नहीं लौट कर आने वाला
-‘ग़ाफ़िल’