वक़्ते-मुश्क़िल मुझे आज़माता रहा
धर्म चलने का हर पल निभाता रहा
वक़्ते-मुश्क़िल मुझे आज़माता रहा
रूठकर दूर जितना वो जाता रहा
दिल के नज़दीक उतना वो आता रहा
दोस्तों से मिले ज़ख़्म इतने मुझे
दुश्मनों पर मुझे प्यार आता रहा
आँधियाँ ज़ोर अपना दिखाती रहीं
वो अकेला दिया मुस्कुराता रहा
फूल से पाँव उनके सलामत रहें
ख़ार राहों से उनकी हटाता रहा
जब वो आयें न पायें अँधेरा कहीं
रातभर मैं दियों को जलाता रहा
जो हुये बेख़बर सच से ग़ाफ़िल रहे
आइना सबको जाकर दिखाता रहा
उसने रक्खा क़फ़स में परिन्दों को है
कल तलक जो परिन्दे उड़ाता रहा
बाँटता जो रहा ग़म ज़माने में वो
ख़्वाब आनन्द के क्यूँ सजाता रहा
– डॉ आनन्द किशोर