वक़्ते-मुश्किल में ये इन्सान बदलते क्यूँ हैं
वक़्ते-मुश्किल में ये इन्सान बदलते क्यूँ हैं
बाद में सोच के वो हाथ भी मलते क्यूँ हैं
अजनबी बन के रहे और सफ़र में तन्हा
साथ देना ही नहीं साथ में चलते क्यूँ हैं
है उन्हे डर कि कोई छेड़ न दे रस्ते में
इतना बन-ठन के भी वो घर से निकलते क्यूँ हैं
दूर मंज़िल भी रहेगी न उजाले होंगे
इस क़दर राहे-मुहब्बत वो बदलते क्यूँ हैं
इक यही प्रश्न सताता है अकेले में सदा
हम शरारों की तरह इश्क़ में जलते क्यूँ हैं
जाल है सामने दिखता भी परिन्दों को नहीं
आबोदाने के लिये इतना मचलते क्यूँ हैं
लोग उम्मीद भी ग़ैरों से मदद की रखते
जो भी ‘आनन्द’ गिरे हैं न संभलते क्यूँ हैं
– डॉ आनन्द किशोर