व्याभिचार
“प्रकृति के बिना आकृति और प्राकृतिक दोनों का असितत्व नहीं (छिन्न) है..
प्रकृति भी तबतक है जबतक की मौनसून सत्र है वरणा सुखे पतझड़ है..
बात नर नारी की हो या प्रकृति की ,इनके वजूद होते हैं सहानुभूति से ..
बुढा बरगद में पत्ते चाहे जितने भी कम हो पर वो मजबूत होते हैं जबतक उसे हवा और पानी मिल रहा हो..
वो तबतक खडे हैं जबतक के उनके जडें मजबूती से खडे हैं..
हां ये खामोश होते हैं पर कभी कमजोर नहीं..
रही बात समाज और परिवार की ये प्रकृति से अलग कहां है.
नारी इतनी भी अमीर नहीं कि वो सबकुछ खरीद ले..।
खुद को गरीब भी नहीं समझती की खुद बिक जाए..।।
दुख दर्द की भी अपनी अदा है..।
ये तो सहनेवालों पर ही फिदा है..।।
वे परेशानियों से डरते नहीं हैं..।
सार इतना है कि नारी बडीखामोशी और होशियारी से अपने हर( बात )परीक्षा को चुनौती के रूप में स्वीकार करती है और व्यक्ति बाधा के रूप में देखता है..
चुनौती -सकारात्मक और बाधा- नकारात्मक।
अंजान तो रावण भी नहीं था अंजाम से..
मगर जिद्द थी उसके अपने अंदाज में जीने की..
जिंदगी के जंग में चाहे जितनी भी चुनौतियां आए ..
मुस्कुरा कर इसे पार लगाना होगा..
बाधाएं बनकर जो रास्ते में आए ..
पत्थर बनकर उससे टकराना होगा..
धन्यवाद
✍️प्रतिभा कुमारी गया-✍️