*व्यापतीं ना प्यासे कभी*
व्यापतीं ना प्यासे कभी ,मुझको धुप में भी नीर की ।
फलती हैं क्यारियां आपु से, प्राण तन मन पीर की ।।
पूर्व लेट ने के सदा ही
डूबती हैं आँखे सजल।
उऋण हुए बिना ही वो
छीन ले गया कौन बल ।
याद सहसा आंन पड़ती है, उन पूर्वजों के छीर की ।।1।
रोये बिना भी मिला था,
रक्त्त माँ के बक्ष का वो ।
भिगोता रहा था बचपना
चीथड़ों को कच्छका वो।
हुईं थीं ना माँ कभी भी, रक्त्त को पिला के अधीर थीं।2
कुछ पलों रह छाँव में फिर
उन्हें कब मिली शान्ति थी।
तपती जेठ धूप में हुईं फिर
हुई धूमिल देह कान्ति थी ।।
झेलती थीं थापडों को ,गर्मियों के बहते हुए समीर की।
3
बेहोशियों या फिर चेतना में
मुझको थी कब चिंता मिली।
देके थपकियों की तान को
रहतीं थीं खिली खिली सी ।।
असहन को भी झेलतीं थीं,” माते तुम बड़ी वीर थीं। 4।
शर्दियों में बहती नासिका को
निज हाथ से तुम स्पर्श कर ।
फेंकती थीं उस गन्दगी को
ढेर में छू और फिर हर्ष कर।
देतीं थीं दूध मिठोनियाँ ,माँ ममता की सच्ची लकीर थीं।5 ।
व्यापतीं ना प्यासे कभी, मुझको धुप में भी नीर की ।।