व्याकुल मन की व्यञ्जना
यह कैसा है अनुबंध
नित्य होता जिसमें द्वंद
व्याकुल होता मेरा मन
क्षणिक भर का उद्गार नहीं
जीवन का आधार तुम
हर पल तुमको देखा करूँ
भले हो बिन शृंगार तुम
प्रीत, प्रेम या अनुराग कहो
या कहो इसे पागलपन
व्याकुल होता मेरा मन
व्यस्तता के पैरहन में
अदृश्य खुद को रखती हो
मेरे मन की व्यग्रता को
अनदेखा क्यों करती हो
समझ न पायी उर वेदना
और अपना ये बंधन
व्याकुल होता मेरा मन
खोकर मुझको, तुम क्या पाओगी
पाकर मुझको, तुम क्या खोओगी
तुम अधूरी, मैं अधूरा
अधूरा है अपना जीवन
व्याकुल होता मेरा मन
स्वरचित:- हिरेन अरविंद जोशी “अबोध”