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1 Oct 2024 · 1 min read

व्याकुल मन की व्यञ्जना

यह कैसा है अनुबंध
नित्य होता जिसमें द्वंद
व्याकुल होता मेरा मन

क्षणिक भर का उद्गार नहीं
जीवन का आधार तुम
हर पल तुमको देखा करूँ
भले हो बिन शृंगार तुम
प्रीत, प्रेम या अनुराग कहो
या कहो इसे पागलपन
व्याकुल होता मेरा मन

व्यस्तता के पैरहन में
अदृश्य खुद को रखती हो
मेरे मन की व्यग्रता को
अनदेखा क्यों करती हो
समझ न पायी उर वेदना
और अपना ये बंधन
व्याकुल होता मेरा मन

खोकर मुझको, तुम क्या पाओगी
पाकर मुझको, तुम क्या खोओगी

तुम अधूरी, मैं अधूरा
अधूरा है अपना जीवन
व्याकुल होता मेरा मन

स्वरचित:- हिरेन अरविंद जोशी “अबोध”

Language: Hindi
35 Views
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