व्यथित आस्था
ढारती है
जल सबेरे
एक माता
मूर्तियों पर ।
आर्द्र तन है
शुष्क मन है,
वेदना में
भी लगन है ।
पीर सबकी
माँ हरेगी ।
धान्य से
कुटिया भरेगी ।
आस से भर
बँधा यौवन
लौट आती
पीर फिर घर ।
सिलसिला ये
चल रहा है,
घाव मन में
पल रहा है,
काम अपना
यह करेगा ।
नव दिनों में
यह भरेगा ।
पूजती है
देवियों को
आस, दुनिया
घूम फिर कर ।
चेतना
संकल्प धर्मा,
वेदना
आरूढ़ कर्मा,
व्रत रखा है
नव दिनों का ।
फल मिलेगा
सौ दिनों का ।
गा रही है
भजन,भगतें
रात में दृग-
बिंदु भर-भर ।
ढारती है
जल सबेरे
एक माता
मूर्तियों पर ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।