व्यथा
मन खामोश था ,
मौन तोलता रहा।
तन्हाई थी अकेले,
इश्क बोलता रहा।
प्रेम भाव स्वर से,
तो दर्द नाचने लगे,
आस नए कल की,
रुग्ण खोलता रहा।
डाह देख जग के,
करुणा रोती रही,
डुबा कृपा खलक,
कोह रोलता रहा।
छाँव तम के तले,
रोशनी छहाँ रही।
स्पर्श श्री मूल से,
चित्त डोलता रहा।
दगा हुस्न का रहा,
नित सच्चे इश्क पे।
दबा दर्देगम को मैं,
प्रेम घोलता रहा।।
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अशोक शर्मा
कुशीनगर, उ.प्र.