व्यथा रावण की
जलता रहा हूँ
साल दर साल
मैं रावण
जलता रहा मैं
धू धू
ताली बजाते
रहे तुम
करते रहे
बदनाम मुझे
एक बार की
सजा भुगत
रहा मैं वर्षों से
अब बताओ
तुम्हीं
क्या मैं
भ्रष्टाचारी हूँ ?
बेईमान हूँ ?
घोटालेबाज हूँ ?
हत्यारा हूँ ?
हवालेबाज हूँ ?
बैंकों का पैसा खाया है ?
झूठे आश्वासनबाज हूँ ?
नहीं नहीं नहीं
आज तो
धड़ल्ले से
यह सब कर
रहा है
इन्सान
विडम्बना है
उन्हीं के
हाथों
मारा जाता हूँ
मैं
हर साल
हर दिन
हर पल
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल