मेरी कविता – – (व्यंग्यात्मक )
कहूँ क्या लाॅकडाऊन की प्रभुताई,
कुहर-कुहर कर होती कविता की भरपाई ।
पहले दिन एक में लिखते कविता चार,
चार दिन भी आज एक में हुआ बेकार ।
होगें प्रतीक्षारत बैठ संभव कही दूर,
जो थे परेशान, विवश सदा मुझसे मजबूर ।
होते दिनभर मोबाइल की छिना छिन,
रहता मोबाइल बेचारा फटा, पुराना दीन ।
रहता सबके हाथ मोबाइल एक,
जितना जो चाहे फिर देख अनेक ।
हालांकि हर दिशा में सजग है सरकार,
जब तक कोरोना से है, देश बीमार ।
मोदीजी तुरंत एक अर्जेन्ट मिटिंग बुलाई,
मैं भी विडियो काॅल पर ही थी भाई।
सहज, सुपाच्य न हो रही मेरी बराई,
जा! हर चैनल पर देख मेरी परछाई ।
मुख्यमंत्री की लकीर हाथ मेरे ज्योतिष को दिखा,
है किसी कोने ,बड़े-बड़े अक्षर में लिखा ।
छोड़ो मुख निज कहूँ क्या संदेश,
चल हो रही जो प्रस्तावना आज स्वदेश ।
राशन के साथ एक मोबाइल दो डिलर भाई,
आर्थिक विपदा के बाद सरकार चुकाएगी पाई-पाई ।
हो रहा नित नूतन बच्चों पर अत्याचार,
टी.वी पर धार्मिकता का ही है अधिकार ।
लाॅकडाऊन में कहाँ जाऐं ये अबोध बच्चे,
हैं वही देश के भविष्य वास्तव में सच्चे ।
मिलेगा हर बच्चों को स्मार्ट सेट
,होगा नहीं किन्ही को करने वेट ।
धरती क्या अंतरिक्ष से भी मिलगे नेट ।
होगा ना अब मेरी कविता लिखने में लेट,
ढाल ले मेरी कविता पढने वाले,हो जा तैयार,
सहना होगा फिर बारंबार कविता की वार।
कमर कस कर तैयार हो जा बंधु-भाई,
कविता सागर में फिर करना त्राहि-त्राहि ।
उमा झा