वो सितारे फ़लक पर सजाती रही।
वो सितारे फ़लक पर सजाती रही।
चाँद का ही वो कुनबा बढ़ाती रही।
ऐब जाने न उसमें भी कितने छुपे,
आइना वो मुझे ही दिखाती रही।
चाँद को ज्यों मुकर्रर हुई है सज़ा,
चांदनी दूर से मुस्कराती रही।
बोझ कंधों पे बढ़ता रहा बाप के,
साथ माँ थी जो हिम्मत बढ़ाती रही।
बनके सूरज मैं जलता रहा उम्र भर,
ये हवा मुझको फिर भी डराती रही।
उसके हाथों में थी क़ैद किस्मत मेरी,
बंद मुट्ठी से जुगनू उड़ाती रही।
इम्तिहाँ इम्तिहाँ और फिर इम्तिहाँ,
ज़िन्दगी यूँ मुझे आजमाती रही।
दोस्ती इन उजालों से अब छोड़ दे,
तीरगी दिन-दहाड़े रिझाती रही।
मेंढ़कों को सरोवर मिले दान में,
जल बिना जान मछली की जाती रही।
इत्तिफ़ाक़न मुलाक़ात होगी कहीं,
इस भरोसे वो ख़ुद को लुटाती रही।
इक “परिंदा” गिरा चीखकर आज फिर,
भीड़ ताली मुसलसल बजाती रही।
पंकज शर्मा “परिंदा” 🕊