वो सत्ता के चारण निकले……
कुछ मृत्यु के भय से ताला, देकर बैठे होठों पर !
कुछ दुनिया से विरक्त हुऐ, ईमान बेच कर नोटो पर!
कितने वस्त्र हरण बाकी हैं, अभी और मानवता के,
कुछ अपना लंगोट रखे, गिरवी बैठे हैं कोठों पर !!
शब्दों को नीलाम किये हैं,सोच को पहरेदार किये हैं,
कब तक किश्मत अजमाओगे, तुम भी सिक्के खोटों पर !!
आग क्रान्ति की लिखने वाले, मिशन भूल कर बैठे हैं,
कितना और विश्वास करें इन, बे पैंदी के लोटों पर !!
जिनको हमने खड़ा किया था, बात हक्क की कहने को,
वो सत्ता के चारण निकले, जीत हमारी वोटों पर !!
✍ लोकेन्द्र ज़हर