वो राह देखती होगी
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नित भोर के चले आते ही
चहुँ ओर वो पथ निहारती
एकटक ओटले पर बैठे
वो तब राह देखती होगी
काम से टूटी शिथिल काया
थकन से चूर चूर होके
रूखी रोटी थाल में सजा
वो तब राह देखती होगी
गहरे काले अंधियारे में
टूटी खपरैल सी झोपड़ी
दीये जला रोशन करती
वो तब राह देखती होगी
घड़ी की टिकटिक करती सुई में
नज़रें गड़ाके पहर गिनती
बरबस ही यूँ दौड़ भागके
वो तब राह देखती होगी
पथ से गुजरती गाड़ियों को
देख बदहवास सी हो कभी
उनींदी अँखियो से निहारती
वो तब राह देखती होगी
गोबर से सने हाथों से
पन्ने किताब के वो पलटती
बेतरतीब कर बिखेर देती
वो तब राह देखती होगी
पापड़,सेवईयां, चकली बना
लोहे के डिब्बों में चुनके
सम्भालती रखती ही होगी
वो तब राह देखती होगी
भर आता होगा दिल कभी
नीर भरे सजल नयनों को
आँचल से पोछ छुपाती होगी
वो तब राह देखती होगी।
✍️”कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक