वो राजनीति हो गई
प्रेम करूं जिससे वो आरक्षण सी मचल गई
साथ रही कभी मेरे कभी विपक्ष के संग गई
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वो रोती और बिलखती हिरनी सी उछल गई
होकर फ़िदा अदाओं पे रहें ढ़ूढ़ते किधर गई
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वो गयी जिधर भी सारी ही रौनक उधर गई
वो रौनक के और रौनक उसके नाम हो गई
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सारी श्री वहीं रही वो श्री की आवास हो गई
इतनी विकसित हुई कि स्वयं विकास हो गई
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जब जुड़ी किसी से वो उसी के पास हो गई
सहती बदनामी वो मुन्नी सा बदनाम हो गई
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वो कभी हुयी पानी कभी सुलगती आग हुई
कभी जेल के अंदर वो कभी छूट बेदाग गई
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आम्र बृक्ष सा बौराई फागुन की फाग हो गई
मंद-मंद मुस्कान हर मन की अनुराग हो गई
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जाड़ों में धूप गुनगुनी बरखा में फुहार हो गई
ऋतु बसंत वन उपवन में फैली बहार हो गई
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तपती दोपहरी की रही बरसती आग हो गई
संक्रमित प्रदूषित जल धारा की झाग हो गई
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वो तो नई-नई चालें चल- चल मशहूर हो गई
जिसने पहनाया ताज उसे उसी से दूर हो गई
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रेखाएं खुद खींचा खुद ही उसके पार हो गई
जाकर के उस पार मूक बधिर लाचार हो गई
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संसद न चलने देती कूद-कूद हुड़दंग हो गई
इतने रंग चढ़ाया इसने रंगों में बदरंग हो गई
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कहीं हो गई पास और कहीं वो फेल हो गई
इतना खेली कि खेल- खेलकर खेल हो गई
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बिष बोती उगती फैली बिष की बेल हो गई
वो अप्रिय बातें बोल- बोल अनमोल हो गई
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विचलित विचार वो देश प्रेम से विरत हो गई
निज हित पर उत्सित प्रबंधित त्वरित हो गई
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न करें किसी से प्यार वो सबकी प्यार हो गई
वो कितनी बार बिकी खुद ही बाजार हो गई
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वो कुछ की हुई अनीत कुछ की नीति हो गई
कहते रहे राज की नीति वो राजनीति हो गई
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–राममचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’