वो, मैं ही थी
वो, मैं ही थी
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वो, मैं ही थी…
जब आवाज दी थी तुमको,
उस पार से -प्रिये..,
क्यों ना सुनाई दी थी तुमको?
देखो तो जरा,
आँखें तो खोलो,
केवल…. केवल…..,
हम और तुम ही हैं यहाँ,
इस नश्वर संसार में,
क्योंकि…..,
सारे तो साथ छोड़ कर जा चुके हैं
एक…एक..करके,
उस पार -प्रिये,
वो, मैं ही थी..,
अब हूँ अकेली,
तन और मन से,
और ढो रही हूँ उम्मीदों के बोझ को,
इस मरी हुई जर्जर सी जिस्म के ऊपर,
कि…..,
तुम आओगे एक दिन
मुझको लेने -प्रिये,
उस पार से….,
उस पार से -प्रिये ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
स्वरचित मौलिक रचना
10-02-2024