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9 Aug 2017 · 1 min read

वो मेरे जर्रे जर्रे में बस्ती है

मुझे अब हिचकी आती नही
याद उसकी मुझे सताती रही

वो मेरे जर्रे जर्रे में बस्ती है
हर एक जर्रे में दर्द समाती रही

गमज़दा है वो अब सदा के लिए
तन्हाई की आग में जलाती रही

राह तकता हूँ हर पल उसकी
मेरी रूह को भी भटकाती रही

हर पल पास आने की जुस्तजू में
उतनी ही दूर पल पल जाती रही

सारी कसमें सारे वादें वफां के कर
बेवफ़ाई के किस्से आ सुनाती रही

खिलौना समझ मेरे दिल को तोड़
दिल बहला अपना, वो जाती रही

गिरगिट की तरह रंग बदल हर बार
सर्प की तरह लिबास बदल आती रही

बदलते मौसम सा मिजाज़ बना
सितम मुझ पर ढाने आती रही

खुद चैन की नींद सोते है, रात भर
मुझे आज भी रतजगा कराती रही

चाँद की रौशनी में तारों की छाव में
उसकी यादें “भूपेंद्र” को रुलाती रही

भूपेंद्र रावत
9/08/2017

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