वो बूढ़ी माँ
मेरी गली के आखिर में एक छोटा सा घर है। उस घर मे गोपाल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता है। उस घर के लाॅन मे अक्सर एक बूढ़ी महिला टहलते हुये नजर आती रहती है। जिनके चेहरे से लटकती खाल पर पड़ी सिलवटे ना जाने कितने उतार चढ़ाव के दौर को अपने मे समेटे हुये है। और थकी हुई चाल, ताह उम्र अपने कंधो से ढोये हुये जिंदगी के लाखो बोझे की गवाही देते है। और उस बोझ से टूटा, कमजोर शरीर जिंदगी के अंतिम पड़ाव में भी तमाम बीमारियों के बावजूत भी जिंदगी की जद्दोजहद के लिए अड़ा है। वो गोपाल की माँ है।
एक दिन मैं किसी काम से शहर के बाहर गया था। सारे काम निपटाते-निपटाते कब शांय हो गयी, पता ही नहीं चला। वहाँ से मै अपने शहर को जाने बाली बस पकड़ कर लौट आया। अपने शहर तक बापस आते-आते काफी रात हो गयी थी। रात की बजह से बस स्टैंड से घर जाने के लिए, ऑटो बहुत देर इंतजार करने के बाद बड़ी मुश्किल से मिला। मैंने आॅटो बाले से पूछा, सिद्धार्थ नगर चलोगे, भाई। ऑटो बाला बोला दो सौ रूपये पड़ेंगे, बाबू जी। और मेन रोड पर ही छोड़ दूँगा, सोच लो! मरता क्या न करता। चल भाई, कहकर मैं ऑटो में बैठ गया। ऑटो बाले ने मुझे मेरी गली के मुहाने पर छोड़ दिया। बिजली नही आ रही थी जिस बजह से गली मे कुछ अंधेरा सा था। उस अंधेरी, सुनसान गली मे दूर से ही कोई व्यक्ति आता हुआ प्रतीत हो रहा था। वह व्यक्ति सामान्य चाल से भी धीरे-धीरे चलता हुआ मेरी तरफ ही बड़ा आ रहा था। वह व्यक्ति लगभग मुझसे टकराते-टकराते बचा। शर्मा जी की खिड़की से आ रही रोशनी की बजह से मैने उसे पहचान लिया। अरे गोपाल! मेरी नजर जैसे ही गोपाल के चेहरे पर केद्रिंत हुई। बैसे ही गोपाल ने चेहरे को छुपाने का प्रयास किया। लेकिन, मैं एक नजर में ही बहुत कुछ भाँप गया था। शायद, वो चिरपरिचित चेहरा कही खोया हुआ था। गोपाल के चेहरे पर हमेशा रौनक रहती थी। गोपाल के चेहरे को जैसे हमेशा खिले रहने की आदत सी थी। लेकिन उस पर आज बेचैनी, मायूसी, आॅखो मे नमी देख, मुझे कुछ चिन्ता सी हुई। दूर से ही दिखने पर हमेशा, मुस्कुराहट के साथ सिर झुकाकर नमस्ते करने वाला व्यक्ति, आज ऐसी अवस्था मे देख, मै भी हैरान था। मैंने एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया देते हुए पूछा, क्या हुआ सब खैरियत तो है? जवाब मे गोपाल ने बिना कुछ कहे, सिर हिलाकर “नहीं” का इशारा किया। और आगे जाने लगा। मैने थोड़े ऊँचे स्वर में आवाज लगायी, कहाँ जा रहे हो…. गोपाल! मेरी आवाज सुनकर वह रूक गया और मेरे गले से लग कर रोने लगा। हमेशा हँसने मुस्कुराने वाला आज ऐसे…। इस सबसे मुझे बड़ी तकलीफ हो रही थी। मैने पूछा क्या बात है अनिल, क्या हुआ है? रात हो गयी थी गली में सन्नाटा पसरा था। गोपाल आज छोटे बच्चे की तरह सिसक सिसक कर कह रहा था वो माँ को, वो माँ…..।
मैने उसे ढाढ़स बंधाते हुये बैठने का इशारा किया। मै और गोपाल वही गली की पुलिया पर बैठ गये। गोपाल का गला रूंध गया था। रूंधे गले से गोपाल ने अपनी बात शुरू की। भाई साहब … वो माँ…. वो…माँ…माँ बैठी है भूखी और मै पेट भर कैसे खा लूँ। एक दाना भी नही होता उसके लिए आज कल मेरी थाली में। होता तो बहुत कुछ है उस थाली मे खाने के लिए लेकिन मेरी माँ के लिए एक निवाला भी नही। शर्म आती है मुझे खुद पर लेकिन रूक जाता हूँ ये सोच कर, कि जिंदा तो है माँ मेरी, कही ये खाना उसके लिए जहर ना बन जाये। साँसे चल रही है मेरी माँ की और फिर भी हर साॅस के साथ वो मेरे लिए दुनिया की तमाम खुशीयाॅ ही माँगती रहती है। और रह-रह कर कहना तो वहुत कुछ चाहती है लेकिन सोच कर रुक जाती है कही कुछ कहने से ही उसके बेटे का वो झूठा सुकून ना छिन जाये। जिस सुख मे उसका बेटा डूबा हुआ है, आज। बचपन के लाड़ प्यार का सिला आज मेरी पत्नी उसे दे रही है। और मै पत्नी के पल्लू से बंधा बस उसके ही सुख-दुख के ख्यालो मे ही डूबा हूँ। और माँ की जरूरतो का ख्याल किसे है। सरमिंदगी के सागर में डूबा हुआ, मै सारे रिश्ते तोड़, अपनी माँ की ओर बड़ रहा हूँ, अब। अब और नही ढो सकता इन पापो को जो मैने अपनी माँ पर जुल्म करके लादे है। उस सादगी की आस लिये मैं यहाँ-वहाँ भटककर दूसरो में माँ खोज रहा हूँ, मूर्ख हूँ मैं, माँ तो माँ होती है और वो कई नही होती। यूॅ ही राह चलते माँ नही मिलती, माँ फिर नही मिलती। भौतिकता में चूर होकर, बनावटी रिश्तो मे मै ऐसा खोया कि माँ को नजरअंदाज कर गया। मै यह भूल गया कि मेरा इस दुनिया में पहला रिश्ता तो मेरी माँ से है। एक कोने मे बैठी, धीरे-धीरे सिसकती, अपने उन दिनो को याद करती होगी कि जब उसका बेटा छोटा था। कही खेलने भी जाता तो मै लौटकर घंटो तक उससे चिपका रहता, माँ ये बात, माँ वो बात, माँँ से बात करने को मेेेरी बाते कभी खत्म ना होती थी। जिस माँ ने मुझे इस दुनिया में लाने के लिए कितने कष्ट सहे और बदले मे आज उसी बेटे के पास टाईम नही, माँँ से दो बाते प्यार से करने को। माँँ के आशुओ के बदले कमाये हुये पापो को, मै अपने जीवन मे कितने भी पुण्य कर लू। कभी भी उन पापो को कम नही कर पाऊंगा। लाख कष्टो के बावजूत भी उसके मुंह से मेरे लिये दुआये और मन मे आशिस ही रहा। और मेरे कारनामे….।
आज शांय खाने के वक्त, मै दूर से उसे ताकता रहा, अब शायद वो कुछ मेरी माँ के लिए भी परोसेगी। आज फिर सिर्फ अपने लिए खाने की थाली देख मेरी भूख मर गयी। माँ बैठी है भूखी और मै पेट भर कैसे खा लूँ….. भईया……..! माँ के प्रति अपने कर्तव्यों से मुँह छुपाते हुये, भरा हुआ मन लिये मै शांय को ही घर से बाहर निकल आया था। फिर आज, मै देर रात घर पहुँचा। मै किचिन के सामने से गुजरता हुआ अपने कमरे मे आया। पत्नी टीवी मे किसी सीरियल मे आॅखे गड़ाये थी। किचिन से आहट आ रही थी आहट मिलते ही मेरा माथा ठनका, जैसे कोई किचिन मे हो। मै फ्रेस होने की मंशा से अपने रूम से बाहर निकला। और सीधे किचन मे पहुँचा। मै किचन के दरवाजे पर खड़ा था। और मेरी बूढ़ी माँ रोटियाॅ शेक रही थी, वो अपने कमजोर हाथो से मोटी-मोटी रोटी बनाने मे लगी थी। मेरी नजर वही थाली मे रखी एक दो रोटियो पर पड़ी, जो मेरी माँ ने बनायी थी। वो रोटियाँ अधपकी, जली हुई थी। माँ के कपकपाते हाथो से ऐसी ही रोटियाॅ सिक पा रही थी। माँ को रोटियाॅ बनाते देख मै पूरा माजरा समझ चुका था। माँ को ऐसी अवस्था में देख आॅखे भरने को व्याकुल हो रही थी। मै क्रोध से लाल हो रहा था। इससे पहले माँ कुछ कह पाती मै वहाँ से हटकर अपने कमरे में पहुचकर पत्नी को भला बुरा कहने लगा। एक साँस मे पता नही कितना कुछ सुनाया मेरी बाते अभी पूरी भी नही हो पायी थी कि मेरी पत्नी भी जवाबी कार्यावाही मे लग गयी। आखिर मे, मै ही कमरे से निकल कर किचिन के पास बनी सीड़ियो पर जाकर बैठ गया।
माँ ने अब तक अपने लिए रोटियाॅ सेक ली थी। और वो एक कोने मे बैठ सिसकते हुये, उन रूखी रोटियाॅ को थोड़ी सी सब्जी के साथ खा रही थी। मै यह देख मन ही मन खुद को कोश रहा था। गला भर चुका था, मैं रह-रह कर अपनी आस्तीन से अपने आशुओ को रोकने की कोशिश कर रहा था। माँ ये देखकर मेरे पास आयी और मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी। मानो वो अपनी ममता मुझ पर उड़ेल रही थी। माँ को पास पाकर, मै फट पड़ा, और वो अपने साड़ी के छोर से मेरे आशुओ को पोछने लगी। माँ मै कैसे प्राश्चित करूं। मेरे कर्मों का प्रश्चाताप सम्भव नही। मैं दुष्ट कैसे चैन की नींद सोता रहा। मैं कैसे भूल गया कि तूने जाने कितनी राते मेरे पीछे जाग-जाग कर काटी है, रात को भूक लगी तो आधी रात उठकर मेरे लिये रोटियाॅ सेकी। मुझे चोट लगी। तो मुझसे ज्यादा दर्द तूने झेले, मेरे पीछे तू पूरी दुनिया से लड़ने को हमेशा तैयार रही। पापा की मार से मुझे बचाने के लिए उसने झूठ तक बोला, और फिर उनसे भी लड़ने मे कभी पीछे नही रही। और मै आज निरंतर अपने कर्तव्यों से मुँह छुपाने की फिराक में रहा। अगर मेरी माँ ने मुझे पैदा होते ही मेरा तिरस्कार कर दिया होता तो….। लेकिन ये तो मेरी फितरत है। उसकी नही। वो तो हमेशा मेरे प्रति बफादार रही। उसकी ममता पवित्र है और मेरे प्यार मे खोट। मैं चाह कर भी तेरे उपकारो को नही उतार सकता। आज भी घर पहुँचने मे देर होने पर सबसे ज्यादा चिंता करने वाली मेरी माँ ही होती है। जिस देख रेख की जरूरत उसे आज है वो उससे कोशो दूर है……. भईया!
गोपाल की बाते सुन मैं सन्न था। पता नहीं जाने क्या-क्या कह गया था, वो। जैसे-तैसे गोपाल को समझा बुझा कर मैं उसे उसके घर छोड़ आया। और जाते-जाते गोपाल वादा करके गया कि वह स्वयं अपनी माँ की देेेेखभाल करेगा। पूरी रात गोपाल के शब्द मेेेरे कानो में गूँजते रहे। यह एक घृणित सच्चाई है, कि गोपाल की माँ की तरह ही अनगिनत माँये, अपने ही बच्चों के द्वारा तिरस्कृत की गयी है।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
दीपक धर्मा