वो पुराने दिन
याद करो
वो दिन जब
घर थे हमारे कच्चे
दिल थे हमारे पक्के
मन थे पावन सच्चे
बेशक एक थी छत
उसी छत के नीचे ही
फलता फूलता था
संयुक्त संपूर्ण परिवार
दादी नानी की कहानियाँ
सुनकर सोते थे बच्चे
नियंत्रित और व्यवस्थित
होते थे घर के असूल
छोटे या हों बड़े सब
खुशी खुशी करते थे कबूल
फलती फूलती थी घर आंगन मे
संपूर्ण भारतीय संस्कृति
हस्तांतरित होते थे संस्कार
निशुल्क और अनिवार्य
पीढियों से पीढियों को
संवरता था समाज
घर का मान और श्रृंगार
होती थीं महिलाएं
ब्याही हों चाहे अनब्याही
रहती संयमित मान मर्यादित
लज्जाई शर्माई सजाई
हया को पल्लू में लपेटे
मान सम्मान को समेटे
बड़ो का था मान सम्मान
कथन होता था उनका हुक्म
बिना शंका संदेह निसंकोच
होती थी अवपालना
परिवार था एक नीड़ कुटुम्ब
सभी को मिलता था समान
प्रेम प्यार मान सम्मान
एक ही स्थान पर पनपते थे
सभी पारिवारिक रिश्ते नाते
खुले होते थे घर आंगन
नीम धरेक की घनी छाँव में
पूरे होते थे चाव अरमान
ठहाकों कहकहों की गुँज में
मनोरंजित होता घर परिवार
बच्चों के कौतूहल चित्कार
किलकारियों शरारतों से
गूँजता था सारा परिवार
सदस्यों के घने झुंड के वास से
प्रतिदिन सदैव रहता था
शादी ब्याह सा प्रफुल्लित माहौल
थी खूब समृद्धि और खुशहाली
दादा जी एक ही शेर सी दहाड़ से
मौन हो जाते सब डरे सहमे से
दुबक जाते थे चुपके से कोने में
कितने अदभुत अच्छे और विचित्र
अविस्मरणीय क्षण पल और दिन
और जब देखते हैं वर्तमान परिवेश
सर्वस्व एकदम विपरीआर्थक
टूटे बिखरे असंगठित असंयमित
अमर्यादित असम्मानित निर्लज्जित
रिश्ते नाते कुटुम्ब समाज परिवेश
सुखविंद्र सिंह मनसीरत