वो धुंधली आकृतियाँ
एक धुंधली सी आकृति
मन के अवचेतन कोने को
छूकर निकल गई
और….
चेतन मन की चैतन्यता
पानी भरती सी रह गई
उन विस्मित करती
विस्मृत यादों को
सहेजना असंभव सा
लगता है
उनकी विशालता
मेरी सूक्ष्म बुद्धि
शायद ही सँभाल पाए
अन्यमनस्क सा
इन दिनों मैं
देह के भार को
मात्र ढोता सा फिरता हूँ
ज़िंदगी के चरागों को
चिनगी दिखाने में
तकलीफ़ महसूस करता हूँ
वो धुंधली आकृति जो
कभी हृदय के साम्राज्य पर
राज करती थी
आज भी उसकी आहटों को
मन के संवेदन कोने
अनुभूत करते हैं
मगर सत्य को शीघ्र स्वीकारना
मनुज की आदत तो नहीं!
पर सत् तो सत्य ही होता है
आँख बंद होने से
विश्व तो नहीं
बदल सकता
‘हंस’ उन परछाइयों को
देखने में परहेज़ न कर
जहाँ भी रोशन चराग होंगे
उनकी आमद तो
होगी ही होगी
अवश्य होगी
वो धुंधली आकृतियाँ……
सोनू हंस