वो दौर चिट्ठियों वाली !!
हँसना रोना होता पन्नो पे, क्या वह भी समय निराली थी।
कैसे कहूँ कि कितनी सुहानी, वो दौर चिट्ठियों वाली थी।।
भाव गढ़े जाते थे कलम से, करती कागज़ रखवाली थी।
कैसे कहूँ कि कितनी सुहानी, वो दौर चिट्ठियों वाली थी।।
चुन चुन कर शब्दों को लिखना, बार बार लिख के मिटाना।
प्रेमी बन्धु प्रिये सखी सम, सम्बोधन से उसको सजाना।।
उस पर गिरे अश्रु की बूंदे, ब्यथा मन कि बताने वाली थी।
कैसे कहूँ कि कितनी सुहानी, वो दौर चिट्ठियों वाली थी।।
आड़ी टेढ़ी खिंची लकीरें, थी सारी वेदना को कह जाती।
दिल खुश होता बाग बाग पा, वो एक मनुहार भरी पाती।।
राह डाकिये की तकती, परदेसी बालम की घरवाली थी।
कैसे कहूँ कि कितनी सुहानी, वो दौर चिट्ठियों वाली थी।।
पत्थर से भी कभी कभी, खत का रिश्ता बन जाता था।
जब लपेट कर कोई प्रेमी, फेंक प्रेमिका तक पहुंचाता था।।
फिर यादों की बन कर गठरी, वही चैन चुराने वाली थी।
कैसे कहूँ कि कितनी सुहानी, वो दौर चिट्ठियों वाली थी।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११/१२/२०२०)