वो थकी आँखें
शून्य में निहारती
वो थकी आँखें
ज्यों ढूँढती हों
समय के साथ
खो गई अपनी पाँखें
जब डैनों में जान थी
शक्ति थी,
उनमें निहित ऊँची उड़ान थी
तब समेट कर छिपाये रखा
अपनी ही खाल के नीचे
क्योंकि घर भर के सपनो में
डालनी उसको जान थी
हर फर्द के लिए
फर्ज़ निभाते निभाते
ना जाने कब
शिथिल पड़ गई
अपने स्वयम् के लिए
कुछ भी सोचने की चाहत
धूमिल हो जड़ पड़ गई
सबकी संतुष्टि में
खुद को संतुष्ट समझती आँखें
बस देखती रह गई
पखेरू सशक्त हो
कब उड़ गए?
सूनी रह गई शाखें
शून्य में निहारती
वो थकी अाँखें
ज्यो ंढूंढती हों
समय के साथ
खो गई अपनी पाँखें.
अपर्णा थपलियाल”रानू”