“वो तुम ही थी ना सखी!”
बस खड़ी थी मैंं तो , बस यूँँ ही,
उस दिन अकेली उस राह पर,
किसी ने आकर ,हल्के से मुस्कुराकर
आँँखोंं से मित्रता का दिया निमंंत्रण ,वो तुम ही थी ना सखी।
चल पड़ी थी हम दोंंनो एक ही राह पर,
मगर थी एकदूजे से बहुत ही अलग और भिन्न,
मैंं समझूँँ तुम मुझसे बेहतर ,
तुम मुझको उम्दा समझती थी, वो तुम ही थी ना सखी।
एक संंबल देने लगी तुम, धीरे -धीरे जीवन को,
हाथ पकड़ कितने ही समय बिताये थे हमने पल-पल,
जब भी टूटने लगूँँ, कंंधे पर वो तुम्हारा,
सशक्त र्स्पश,दे जाता था ना जाने कितने ही संंकल्प ,वो तुम ही थी ना सखी।
मेरा झूठ तुम्हारा सच,मझधारोंं मेंं कभी ना छोड़ा,
देती थी जो हर एक क्षण-क्षण मेंं दिलासा,
जब भी याद करुँँ आ जाती,
मेरे दुखोंं को और अपने सुखोंंको बाँँटने,वो तुम ही थी ना सखी।
मेरे जीवन मेंं एक विश्वास तुम्ही रही,
मेरी खुशियोंं का कुछ आधार भी तुम्ही रही,
किसी ने दुआ दी थी, किसी ने मखौल उड़ाया था,
कुछ ऐसी ही हमारी यारी थी ,वो तुम ही थी ना सखी।
बंंध गई थी हम दोंंनो एक प्रगाढ़ प्रेम से,
सुख-चैन की दोंंनोंं की भागीदारी थी,
बदल जायेगेंं समय, और बदल जायेंंगे लोग,
दिन-रात बदले ,पर जो ना बदले,
वो तुम और हम ही थी ना सखी, है ना सखी!!!
#सरितासृृजना