“वो छू कर हमें हवा क्या गयी”
वो छू कर हमें हवा क्या गयी,
कि रास्ते में लगे रुख हवा का मोड़ने,
अभी तो बदलियों का दौर है,
जरा खिल कर चांद को आने तो दो,
देखो सूरजमुखी है कुम्हलाया सा,
जरा सूरज की रश्मियां बिखरने तो दो,
कहीं रजनीगंधा की छुअन सी,
उन्मुक्त सुरभि को सांस में बसने तो दो,
अभी हमारी कश्ती है डगमगाती,
जरा साहिल के मोड़ पर आने तो दो,
कहां लगे हो हमारी हस्ती को मिटाने,
जरा अपनी बस्ती के पास से गुजरने तो दो,
वो छू कर हमें हवा क्या गयी,
कि रास्ते में लगे रुख हवा का मोड़ने,
वो छू कर हमें हवा क्या गयी …..
© डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”