वो चुपचाप आए और एक बार फिर खेला कर गए !
वो चुपके से आते हैं और सारा खेल बदल जाते हैं। वो भी इस तरह से कि किसी को सहजता से यकीन ही नहीं हो। प्रत्याशित को अप्रत्याशित में परिवर्तित करने वाले इन लोगों के पास न कोई पहचान पत्र होता है और न उनकी कोई अन्य विशिष्ट पहचान। सामान्य व्यक्तित्व,सामान्य वेशभूषा,सामान्य बोलचाल कुछ भी तो ऐसा अन्यतर नहीं होता,जिससे उन्हें अलग से पहचाना जा सके। न वो किसी से जाति, धर्म या संप्रदाय के रूप में उनकी पहचान पूछते हैं और न ही इस तरह की अपनी पहचान किसी को बताते हैं।
कौन है वो लोग, आखिर कहां से आते हैं? न उन्हें गाड़ी चाहिए, न फाइव स्टार होटल। न कोई अन्य वीआईपी ट्रीटमेंट। सामान्य ढाबे या सामान्य धर्मशालाएं जिन्हें परम वैभव से कमतर सुख देने वाले साधन से कम नहीं होते हैं। स्वहित से दूर राष्ट्रहित जिसके लिए सर्वोपरि होता है। बिना झंडे, बिना पर्चे राष्ट्रहित में सौ फीसदी मतदान का लक्ष्य लेकर भीड़ से दूर इस प्रकार लोकमत परिष्कार करते हैं, जिससे बड़े बड़े नेरीटिव धराशाही हो जाते हैं। चर्चाओं से दूर रहकर किया गया ग्राउंड वर्क बाद में उनकी उपयोगिता को अपने आप दिखा जाता है। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र चुनाव का अप्रत्याशित परिणाम इसका ताजा उदाहरण है।
हम बात कर रहे हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उन अदृश्यमान कार्यकर्ताओं की। जो दिखते नहीं हैं, पर उनका कार्य उन्हें अपने आप दिखा जाता है। आइए जानें! आखिरकार उनमें ऐसी क्या विशेषता होती है जो उन्हें दूसरों से इतर करती हैं। तो सुनिए, ये ध्येयनिष्ठ होते हैं। समर्पण भाव से निरंतर साधना इनका प्रमुख लक्ष्य रहता है। अनुशासित होने के साथ दूसरों के लिए ये प्रेरणास्वरूप तो होते ही हैं,साथ में सद्चरित्र आचरण उनकी दूसरी बड़ी विशेषता होता है। अहंकार से कोसों दूर रहकर किसी भी प्रकार के पद या अन्य लाभ की इन्हें कोई अभिलाषा नहीं होती है। व्यवहार कुशलता के साथ ये आत्मविश्वास से सराबोर रहते हैं । ‘एकला चलो’ की जगह वे ‘संग में चलो’ को प्राथमिकता देते हैं। दूसरों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना उनके लिए सर्वोपरि रहता है। मन ही मन वो सदा ऋग्वेद के इस मंत्र को संगठन मंत्र के रूप में गुनगुनाते रहते हैं।
‘ संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ‘
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।
जिसका भाव है कि हम सब मिलकर रहें, हम सभी ज्ञानी बनें, विद्वान बनें। हम अपने पूर्वजों के समान आचरण करें। प्राचीन समय में देवताओं का आचरण बिल्कुल ऐसा ही रहा है
संघ के इन कार्यकर्ताओं के लिए ‘ राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम’ ये जीवन राष्ट्र को अर्पित है, यह मेरा नहीं है। राष्ट्र सबसे पहले, समाज और स्वयं उसके बाद। होने को तो उनका दायित्व बहुत बड़ा होता है पर वो अपने आपको एक सामान्य कार्यकर्ता ही मानते हैं। उनके लिए एक सामान्य कार्यकर्ता होने से बढ़कर गर्व और सम्मान की कोई दूसरी बात नहीं होती है। उन्हें अपने दायित्व का बोध मन से होता है, किसी के बताने या समझाने से नहीं। उन्हें हमेशा ध्यान रहता है कि समाज और राष्ट्र लगातार उनकी ओर देख रहा है। समाज और राष्ट्र को उनसे बहुत बड़ी-बड़ी अपेक्षाएं हैं। उन अपेक्षाओं को पूर्ण करते हुए स्वयं के सर्वांगीण विकास के प्रति भी वे उतना ही सजग रहते हैं।
उन्हें पता होता है कि संगठन में कार्य करते समय वो जितना अपना विकास करेंगे,उतना ही संगठन को उनसे और लाभ होगा। उन्हें किसी कार्य पर ताली या तारीफ की आवश्यकता नहीं होती है। जो कार्य किया उसके परिणाम पर चेहरे पर आने वाली मुस्कान ही उनका सबसे बड़ा सम्मान होता है। वो ये भी इंतजार नहीं करते कि कोई उनके आगमन पर अगवाई करे,गुलदस्तों और फूलमालाओं से उनका स्वागत करे। या उनकी विदाई वीआईपी की तरह गाड़ी तक छोड़ने,भेंट स्वरूप उपहार देने के जैसी हो। बिना कोई औपचारिकता निभाए जिस प्रकार वो आते हैं,उसी प्रकार चुपचाप अपना झोला उठाकर ये कहते हुए निकल जाते हैं।
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
( मिलकर कार्य करने वालों का मंत्र समान होता है , अर्थात वह परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहुंचते हैं। चित सहित उनका मन समान होता है।
लेखक;
सुशील कुमार ‘नवीन‘, हिसार
96717 26237
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार है। दो बार अकादमी सम्मान से भी सम्मानित हैं।