वो गिरगिट सा रंग, बदलने लगे हैं
वो गिरगिट सा रंग अब, बदलने लगे हैं
मगर उनसे अब हम, सम्हलने लगे हैं।।
नवाज़ा जो मालिक ने थोड़ा सा उनको।
अभी से ही तेवर, बदलने लगे हैं।।
कभी ख़ास हम भी , रहे उनको लेकिन
वो मुँह फेरकर अब, निकलने लगे हैं।।
पड़ी चार बारिस की चार बूंदे , ज़मी पर।
वो मेंढक के जैसे, उछलने लगे हैं।।
कभी दूध,हमने पिलाया था जिनको।
ज़हर वो हमी पर, उगलने लगें हैं।।
नया दौर है ये,नई है तरक्की।
ज़माने के रंग, उनपे चढ़ने लगे हैं।।
हर इक दिल में रहने की, चाहत है उनकी
नये रोज़ रिश्ते, बदलने लगे हैं।।
हकीकत से पर्दा न,उठ जाये “योगी”
खुदी से वो शायद, दहलने लगे हैं।।
—–योगेन्द्र सिमरैया सांईखेड़ा
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