वो काल है – कपाल है,
वो काल है – कपाल है,
काल – मृदंग पर नाच रहे;
समय की वो चाल है।
है मुण्ड की माल तो,
भस्म भी शरीर पर।
कंठ मे है विष लिए तो,
चन्द्र गंग शीश विस्तीर्ण पर।
क्रोध मे जो चल रहे तो,
डोलता आकाश है।
ये किसकी चमक से प्रज्वलित,
समस्त ब्रह्माण्ड का प्रकाश है।
है जल रही चिताएं तो,
श्मशान मे भी बस रहे।
तो कहीं काशी के घाट पर,
आत्मा को जीवन मृत्यु से तर रहे।
है सत्य का स्वरूप तो,
कण-कण मे भी बस रहे।
ऐसे लिंग रूप शिव को,
प्रणाम नस्मस्तक हो हम;
बारम्बार कर रहे।