वो कली मासूम
मेरा बचपन
मेरा क्रंदन
मासूम कली
का ये उपवन
भीगा भीगा
मां का आँचल
भीगा भीग मेरा
तन मन।
मैं भोर सूर्य का
थी प्रकाश
उज्ज्वल उज्ज्वल
थी सत प्रकाश।
मैं सांझ ढले की
बेला थी..
नाज़ों से पली अकेली थी।
जग ने मुझको
कई नाम दिए
नाम दिए
इनाम दिए
मैं इठलाती
इतराती थी
न रोती थी
चिल्लाती थी।।
मैं मोहित थी
मैं पूजित थी
न शोषित थी
न योजित थी
मेरे भी कुछ
सपने थे
सूरज चंदा
सब अपने थे।।
नीला नीला था
वो आकाश
तारों से जगमग
वो प्रकाश
रक्त क्षितिज भी
मेरा था
अस्त क्षितिज भी
मेरा है।।
टूटा तारा
टूटे सपने
तार तार फिर
कोमल देह
लुप्त नेह की
अर्थी थी
मैं मासूम
अकेली थी।।
सूर्यकान्त द्विवेदी