वो ओस की बूंदे और यादें
ओस की बूंदें और तेरी यादें सच तो यही कथानक है परंतु आज आधुनिक परिवेश में हम सभी अपने गांव अपने शहर अपने घर वार को छोड़कर पैसे के लिए आमदनी के लिए और परिवार के भरण पोषण के लिए महंगे फ्लैटों में और बड़े-बड़े शहरों में अपने जीवन का सुख और चैन पाने के लिए बस जाते हैं और ओस की बूंदें और तेरी यादें भी नहीं आती है। जब हमारा शरीर बुढ़ा और लाचार हो जाता है। तब शायद हमें अपनी शरीर की चिंता और जीने की लालसा उन उसकी बूंद पर टहलना और उसकी यादें हमें याद करने पर मजबूर कर देती है। सच तो यही है कि ओस की बूंदें और तेरी यादें जैसा हमारी कहानी का शीर्षक है। हम सभी आज कहानी पढ़ते हुए सोच सकते हैं की जीवन में आज ओस की बूंदें और तेरी यादें कहां है। और हम सभी ओस की बूंदें और तेरी यादें अपने मन भावों में ढूंढते हैं।
कहानी का एक उदाहरण है की एक नन्ही बच्ची आशा अपने दादाजी को सुबह-सुबह चश्मे को साफ करते हुए देखती हैं और दादाजी बेखबर उसे बच्ची की निगाहों से अपने चश्मे को साफ करके अपने 15 मंजिल के फ्लैट की एक खिड़की से शीशे की खिड़की से झांक कर बाहर के मौसम को देख रहे थे। और शायद उनकी आंखों में हल्के आंसू भी छलक रहे थे क्योंकि दादी जी का देहांत हुए 5 वर्ष हो चुके थे। कभी नन्ही बच्ची आशा ने पूछा दादाजी दादाजी आप रो क्यों रहे हैं तब दादा जी ने अपनी पोती को गोदी में उठाकर प्यार से कहा बेटी अभी तुम बच्ची हो जाओ खेलो परन्तु नन्ही बच्ची आशा जिद कर बैठी दादाजी बताओ ना तब दादा जी बताते हैं ओस की बूंदें और तेरी यादें और उसका महत्व हम शायद आज भूल चुके हैं। नन्ही बच्ची आशा दादाजी से लिपट जाती है। अपनी तोतली भाषा में कहती है। दादाजी दादाजी सच तो यही है कि ओस की बूंदें और तेरी यादें हमेशा याद रहती हैं। और दादा जी नन्ही आशा को सुलाने लगते हैं।