वो एक विभा..
उन्मुक्त चांदनी सी हसमुख
है जग में उसकी अलग प्रभा
वो एक विभा!
तुम निष्कलंक, निष्कंटक सी
निर्मल नदियों की धारा हो,
जिससे हो सारा जग गुंजित
वो वीणा की स्वरधारा हो।
जिसका स्वयं प्रकाश,
कि जिसकी स्वयं ही आभा
वो एक विभा!
तुम कांति युक्त शीतल सुंदर
तुम अविरल बहती धारा हो
जो स्वयं प्रकाशित हो नभ में
तुम ऐसा एक सितारा हो।
जिसकी स्वयं हो सांझ
कि हो जिसकी स्वयं सुभा
वो एक विभा!
– पर्वत सिंह राजपूत (अधिराज)
ग्राम सतपोन