वो एक क्षण
बस यूँ ही चलते चले जा रहे थे
अपनी ही धुन में खोए मगन से
बिसरी डगर से पुकारा किसी ने
आवाज वही थी, जानी हुई सी
बोली वही थी, पहचानी हुई सी
सहसा ठिठककर देखा पलटकर
नज़र थी या जादू समझी नहीं थी
आँखों के आगे वो यादों की परतें
चलचित्र की भांति खुलती रही थीं
सुधबुध भुलाकर विस्मृत सी होकर
देखा था उसको नज़रों में भरकर
वही था वो मेरा हमदम जिसे मैं
अंतःकरण में बसाकर चली थी
कितने ही मौसम बिताए स्मृति में
कितने ही सपने सजाए हृदय में
सब कुछ उसे मैं बताने चली थी
मगर मेरे कुछ भी कहने से पहले
बाँह धर गले से लगाया था उसने
बरसों के शिकवे पलभर में बिखरे
अविरल नयन जल बहने लगे थे
पलभर को दुनिया ठहर सी गई थी
उस पल को साँसें भी थम सी गई थीं
कैसी विधाता की लीला थी अनुपम
उस एक क्षण में पाया था जीवन
उस एक क्षण में पाया था जीवन ।
डॉ सुकृति घोष
ग्वालियर, मध्यप्रदेश