वैश्विक बाज़ार और हिंदी
वैज्ञानिकों का कहना है कि आरम्भ में कुछ ही भाषायें थी, जिन्हें आज हम भाषाओं के परिवार के रूप में जानते हैं , ( जैसे , संस्कृत, द्रविड़ परिवार आदि) परन्तु जैसे जैसे मनुष्य जिजीविषा की खोज में एक से दूसरी जगह बसने लगे , उनकी भाषायें भी अपने आसपास के भौगोलिक , जैविक वातावरण से प्रभावित हो बदलने लगी, और अनगिनत भाषाओं का जन्म हो उठा। आज इतिहासकार भाषा के इस लगातार बदलते रूप के आधार पर , बदलते इतिहास का अध्ययन करते हैं।
युद्ध और सत्ता मनुष्य जीवन का सदा से ही एक भाग रहे हैं । यह मनुष्य की मनोवृत्ति है कि हम सदा से ही अपने से अधिक शक्तिशाली का न केवल आचार विचार अपनाना चाहते हैं , अपितु उसकी भाषा भी अपनाना चाहते हैं , ताकि हम अपनी शक्ति को बड़ा सकें । यह प्रवृति हम चिंपाजी आदि में भी देखते हैं , मादा चिंपाजी यह प्रयत्न करती हैं कि उनके बच्चे अधिक शक्तिशाली चिम्पांज़ी के बच्चों से खेलें ।
एक समय था जब हमारे पास भाषा नहीं थी । फिर कुछ जैविक कारणों से हमारे गले में लैरिंक्स थोड़ा नीचे आ गया जिसके कारण एक छेद बन गया, और एक ध्वनि यंत्र का निर्माण हो गया, जिसके कारण हम मूक प्राणी मुखरित हो उठे । दूसरा हमारी जैविक संरचना में FOXP2 जीन कुछ चार पाँच लाख वर्ष पूर्व ऐसा विकसित हुआ कि हममें भाषा की क्षमता आ गई , अर्थात् भाषा प्रकृति का मनुष्य को एक वरदान है, भाषा आ जाने से अब वह अधिक स्पष्टता से सोच सकता था, प्रश्न पूछ सकता था, कल्पना कर सकता था, अपने संचित ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ा, एक दिन अंतिम सत्य को पाने की आशा कर सकता था ।
इतिहास में एक ऐसा समय आया जब इंग्लैंड के हाथ उद्योगीकरण की कुंजी हाथ लग गई, वह यकायक अधिक शक्तिशाली हो उठा, उसकी इस नई अर्जित शक्ति से प्रभावित हो यूरोप के अनेक राष्ट्र उद्योगीकरण की ओर बढ़ने लगे । अब अपना सामान बेचने और कच्चे माल को लूटने की होड़ लग गई । अफ़्रीका, ऐशिया, लैटिन अमेरिका उपनिवेशवाद के घेरे में आ गए, दासत्व की पीड़ा से ये महाद्वीप कराह उठे । इनका सामाजिक ढाँचा, आचार विचार, आत्मविश्वास, तथा भाषा बिखरने लगी । आज भी गोरा रंग , ऊँचा क़द , हमारी सुंदरता की परिभाषा है । जिस जिस यूरोपियन देश ने जहां जहां राज किया , आज भी शक्तिशाली वर्ग वहाँ वहाँ उनकी भाषा बोलता है , जैसे नाइजीरिया में उच्च वर्ग की भाषा अंग्रेज़ी है क्योंकि यह अंग्रेजों का उपनिवेश रहा, जब कि आसपास के कई छोटे देशों की भाषा फ़्रेंच है , क्योंकि वहाँ फ़्रांस ने राज किया । इनकी अपनी भाषा में संचित ज्ञान प्रायः लुप्त हो गया है, या कुछ विशेषज्ञों के पास सुरक्षित है। कोई आश्चर्य नहीं कि अपने पूर्वजों के ज्ञान के बिना ये राष्ट्र अनाथों की तरह पश्चिम की ओर दिशा निर्देश के लिए देखते हैं ।
उन्नीसवाँ सदी में डारविन आए और उनके साथ आया नया विचार, सर्वाइकल आफ द फिटस्ट, हालाँकि यह शब्द उनके नहीं अपितु उनके कट्टर समर्थक हैक्सले के है, परन्तु यह विचारधारा डारविन की है, इस नए विचार ने चिंतन के अनेक द्वार खोल दिये, मनोविज्ञान, जीव विज्ञान, भूगोल, औषधि विज्ञान, राजनीति , और अर्थव्यवस्था को हम नए ढंग से देखने लगे ।
इससे पूर्व 17वीं , 18वीं सदी में , यूरोप में डेजिम (Deism ) अर्थात् प्राकृतिक धर्म का विकास हो चुका था , अर्थात् यह दुनियाँ ईश्वर नहीं अपितु प्राकृतिक नियमों से ( गुरुत्वाकर्षण आदि ) चल रही है, और हमारी सामाजिक संरचना का आधार भी यही होने चाहिए । यह हमारी प्रकृति है कि हम सुख चाहते है, और हमें भौतिक संपदा से प्रसन्नता मिलती है, इसलिए धन का संग्रह एक उचित दर्शन है ।
अमेरिका , जो एक नया राष्ट्र है , उसने अपनी अर्थव्यवस्था में इन दो मूल विचारधाराओं को रखा , इन्हीं विचारों से व्यक्तिवाद , पूंजीवाद जैसे विचारों का जन्म हुआ ।
पूंजीवाद ने राजनीति को इतना प्रभावित किया कि आज सारे क़ानून उनके अधीन हो गए । धन के अतिरिक्त मनुष्य की योग्यता को नापने का कोई पैमाना न रहा । जब भी यह धनी राष्ट्र किसी निर्धन राष्ट्र की सहायता करते हैं , तो ऐसी अनेक शर्तें लगा देते हैं कि निर्धन और निर्धन हो जाते हैं , और यह और अधिक समृद्ध । अपने हथियार बेचने के लिए यह युद्ध करवा देते हैं , और करोड़ों का जीवन उजाड़ देते हैं । तकनीक इतनी गति से बड़ रही है कि मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए चिंतित है, वह इसलिए नहीं कि तकनीक स्वयं में बुरी चीज़ है, अपितु उसका प्रयोग करने वाले मनुष्य ने अपने दंभ, तथा लालच का इलाज नहीं ढूँढा ।
हमारे जीवन का कोई भी भाग ऐसा नहीं जो आज अमेरिका से प्रभावित न हो, इसलिए अंग्रेज़ी का बोलबाला भी क़ायम है। इस भाषा के सहारे आप दुनिया में कहीं भी व्यापार कर सकते हो । यह भाषा दुनिया के हर कोने में सिखाई जाती है, बिना इसके आपकी गति सीमित है ।
सौभाग्य से दुनिया बदल रही है। उपनिवेश वाद का शिकार हुए राष्ट्रों में आत्मविश्वास लौट रहा है । उसका मुख्य कारण है, पर्यावरण को हो रही हानि, पारिवारिक ढाँचे का टूटना, आतंकवाद का बढ़ना , मुट्ठी भर लोगों का आवश्यकता से कहीं अधिक धनी हो जाना और मीडिया में एक साधारण व्यक्ति का इन लोगों की चकाचौंध कर देनेवाली जीवन शैली को देखना , हवाई यात्रा बढ़ने से दुनियाँ का और अधिक छोटा हो जाना, इंटरनेट से जानने के अधिकार का विस्तार हो जाना ।
भारत जैसे देश अपनी तंद्रा से जाग रहे हैं । वह पूरे आत्मविश्वास से अपने जीवन मूल्यों की बात दुनिया के समक्ष रख रहे है ।
तीस हज़ार वर्ष पूर्व नींयदरथल और होमोसेपियन में जिजीविषा के लिए संघर्ष हुआ था , जिसमें जीत होमो सेपियन यानि हमारे पूर्वजों की हुई थी, हालाँकि शारीरिक बल नीयंदरथल के पास अधिक था , हमारी विजय का कारण था, हमारी भाषा का अधिक विकसित होना । भाषा से हमारा संप्रेषण, कल्पना अधिक सक्षम हो पाया, और उसने हमें इस धरती पर जीने का हक़ दिलाया । आज भारत को अपनी खोई गरिमा को पाने के लिए अपनी भाषा की ओर लौटना होगा । हिंदी यदि उस उच्च स्थान को अर्जित करना चाहती है , तो हमें अपनी भाषा में आज की समस्याओं के समाधान देने होंगे, जिसकी योग्यता निरंतर प्रयास से ही मिलेगी । भारत की यदि अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है तो उसकी भाषा भी सुदृढ़ है, परन्तु भारत को यह सुदृढ़ता पश्चिम के ढाँचे पर नहीं , अपितु अपने मौलिक चिंतन के आधार पर लानी होगी ।
एक समय था जब संस्कृत सीखने के लिए लोग दूर दूर से आते थे , वह मात्र इसलिए नहीं क्योंकि हम आर्थिक रूप से उन्नत थे , अपितु इसलिए भी क्योंकि संस्कृत में ज्ञान बद्ध था । भाषा और आर्थिक उन्नति एक वृत्त में एक दूसरे को संपन्न करते हुए चलते है। आज लोग मैड्रिड या जैपनीज़ इसलिए सीख रहे हैं , क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है, और यह राष्ट्र अब अपनी संस्कृति का सिक्का मनवाने की स्थिति में आ रहे हैं ।
आशा है, हिंदी में शीघ्र ही विचारों की क्रांति होगी, और वह अपने स्थान के लिए राजनीतिज्ञों से सहायता नहीं माँगेगी, अपितु स्वयं उठ खड़ी होगी , अपने ज्ञान और विचारों के साथ । इसके लिए आवश्यक है सबसे पहले हम अपनी भाषा का सम्मान करना सीखें । जिस तरह भारतेन्दु ने खड़ी बोली को काव्य की भाषा बनाया, हम उसे सरकारी दफ़्तरों में उपयोग की भाषा बनायें , और तब यह प्रश्न पूछें कि वैश्विक बाज़ार में हिंदी का क्या स्थान है ।
शशि महाजन- लेखिका
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