वैशाख की धूप
इस बार का वैशाख
जेठ से भारी लग रहा,
तपिश का ये आलम है
कि आग सा ये जल रहा।
भास्कर बरसा रहा
अनल जल स्वाहा सा,
देखो बेचैन वृन्द खग
भूतल जलता तवा सा।
फसल सब कट गये
खेत लगते है बांझ से,
गेहूं की परालियाँ
जल रहे है सारे खेत मे।
बची हुई बालियों में
शशक है ढूढता जीवन,
मची होड़ है पक्षियों में
बना प्रश्न है जीवन मरण।
आसन्न बरसात से
बचने की है ख्वाहिश,
खेतों के मध्य लगी जैसे
जीव जंतुओं की नुमाइश।
बीच बीच मे अंधड़
बेवक्त चल रहे है ऐसे,
उड़ा कर बालियों को
मानो खींच रहे हो हमसे।
जीवन से जंग का खेल
निरंतर आज भी जारी,
निर्मेष खेल निरंतर चल रहा
पर दीखता नही मदारी।
निर्मेष