वेदों में गौ एवं वाक्
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❆ स्वतंत्र सृजन –
❆ तिथि – 05 दिसम्बर 2018
❆ वार – बुधवार
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▼ स्वतंत्र रचना
वेदों में गौ का स्वरूप
अ से हः तक सब ओम् कार..या गौ..शब्द में व्याप्त हैं… व्याकृत से पूर्व कि अव्याकृत स्थिति का भी वेदों में विशद उललेख है।
.जैसा कि हम जानते हैं, ईशावास्योपनिषद् शुक्लयजुर्वेदकाण्वशाखीय-संहिता का ४०वाँ अध्याऐय है।इसका प्रथम मंत्र:-
“ईशा वास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।” अर्थात यह सकल जगत सदा सर्वथा सर्वत्र उनहीं से परिपूर्ण है अतः विश्वरुप ईश्वर की पूजा के भाव से इसे निरासक्त भाव से उपभोग करें।
हमारी सकल सृष्टि वांङमय, वषट्कार याकि वाक्-मय है ओम् या प्रणव जिसका मूल है.. अ- मन वाचक उ- प्राण वाचक व म्- वाक् का वाचक है। यह सारे जगत का आत्मा है अतएव स वा एष आत्मा वाङ् मयः प्राणमयो मनोमयः यह कहा जाता है जैसे कि ओमित्येकाक्षरं बह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् यही वेदों में प्रथम वाक् गौ है जो स्वयंभू लोक से लोकालोक में व्याप्त है।
स्वयंभू मण्डल के बाद परमेष्ठी मण्डल है जिसे कि हम गौलोक अथवा गौकुल भी कहते हैं..ये विराट गौ का उद्गम स्थल है। तीसरा हमारे सौर मंडल से उत्पन्न गौ है जिसे गौ ही कहते हैं। चतुर्थ चन्द्रमा से उत्पन्न ईडा गौ कहलाता है। तथा पंचम पृथिवी का भोग गौ जो कि जड़ चेतन सर्व पदार्थों में होता है तथा.. हमारा अशनाया(भूख) जो कि हर कण कण को कुछ प्राप्त करने की इच्छा रहती है तथा उसकी पूर्ति विभिन्न प्रकार से होती रहती है।
वेद गौ देव भूत लोक इन पाँचों उक्थों के क्रमशः बह्मा विष्णु इन्द्र अग्नि सोम ये पाँच आत्मक्षर अधिष्ठाता हैं। बह्मा वेदमय है गौ विष्णुमयी है देवता इन्द्रमय हैं भूत अग्निमय हैं एवं लोक सोममय हैं। परंतु पाँचों का ही मूल संबंध विष्णु से ही है.. क्योंकि सोममय(देने वाला) विष्णु ही है.. अतः गोविंद गोवर्धन गोपाल आदि नाम गौसंवर्धन रक्षण पालन आदि से संबंधित हैं। भूमि पर विचरण करने वाली गौ भी उसका प्रत्यक्ष भौतिक स्वरूप है इसीलिए पूजनीय है।
आगे कभी अधिक विस्तार से भी बतलाऊँगा..इन्हीं को फिर सहस्त्र तथा उनमें कोई एक कामगवय या जो हम कामधेनु बोलते हैं उसका भी अलग विशिष्ट महत्व एवं वर्णन है।
वाग्देवी सरस्वती के भी आम्भृणी वाक जिसका उद्गम स्वयंभू मण्डल कि गौरि वाक् से है के ध्वन्यात्यक एवं अर्थात्मक दो स्वरुप हैं… अर्थात्मक का भविष्य में कभी.. वर्णन करुंगा.. ध्वन्यात्मक के नाभी से मुख तक परा पश्यति मध्यमा वैखरी स्वरुप का ज्ञान तो आमतौर पर सभी को होगा ही… इसी के साथ.. विराम।
वेद भगवान कहते हैं:-
सृष्ट,प्रविष्ट, प्रविवित्त तीन हैं मालिक के रुप
सृष्ट है सारी रचना जगत की
प्रविष्ट से सबके भीतर समाया
प्रविवित्त है भिन्न अलग सबसे उसका विशुद्ध स्वरुप
बाकी सब माया उसकी क्या सुख-दुःख, छाया धूप
वह तो एक अंनंत अखंड निरंजन सत्चिदानंद स्वरूप
प्राण अपान व्यान समान उदान कूर्म कृकल नाग धनंजय देवदत्त दस प्रमुख प्राण
प्राण सर्वव्यापी सर्वत्र सदा करे अपान अधोप्राण से घर्षण
व्यान है केन्द्र बिंदु हो उष्मामय
करे दोनों का आकर्षण
समान समान रुप से व्याप्त जीव में करे पोषण रस वर्षण
उदान है वह उर्ध्व प्राण जिससे होय मोक्ष उत्कर्षण
बचे पांच उपप्राण है छींक जम्हाई अंगसंचालन ड़कार मृत्योपरांत भी रहे प्राण धनंजय
इसीलिए शवदाह इसको मुक्त करनें का प्रावधान यह
शुभमस्तुः !!
#स्वरचित_स्वप्रमाणित_मौलिक_सर्वाधिकार_सुरक्षित*
✍ अजय कुमार पारीक ‘अकिंचन’
☛ जयपुर (राजस्थान)
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☛ Ajaikumar Pareek.
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