वेदना
वीणा-सी झंकृत होती,
आवाज माँ की , अब
सहमी हुई है,दो बरस से ।
माथे से बहता स्वेद,
और पैरों में पड़े हुए
छालों के साथ,
पच्चीस कोस पर
होता है सूर्यास्त पिता का।
कानाफूसी में
ग़ुजरने लगा है
वक्त पड़ोस का ।
वैधव्य से पीड़ित
टूटे घर के
उखड़े कोने में
सिमट गई है,बूढ़ी दादी ।
परिवार की व्यथा
से अभिभूत,द्वार पर
बैठा है कुत्ता चौकन्ना,
उसकी भी
आँखें गीली हैं।
आखिर.!
सयानी हो चली है,
बिटिया ग़रीब की ।
-ईश्वर दयाल गोस्वामी
कवि एवं शिक्षक।