वेदना
वेदना
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वेदना मानव हृदय से
मिट रही संवेदना की
प्रश्न है यह यक्ष बोलो
क्या कभी तुम पढ़ सकोगे?
है पिता से पुत्र आहत, भ्रात से भ्राता कुपित है
मातु के अपमान सहने, की व्यथा से मन भ्रमित है
निज स्वशा को कर प्रताड़ित, बन रहा मनु है विधाता
दंभ मिथ्या शान का अब, है बना देखो प्रदाता
मिट रहे है मूल्य नैतिक
कर रहा संबंध खण्डित
टूटते अनुबंध की, क्या
मूर्तियाँ तुम गढ़ सकोगे?
प्रश्न है यह यक्ष बोलो
क्या कभी तुम पढ़ सकोगे?
मित्रता छलने लगी अब, चाल कुत्सित नित्य चलकर
घात करता है हृदय में, गोदि माँ के पुत्र पलकर
आचरण का क्षय यहाँ अब, दुर्विचारों का उदय है
कंश, दुर्योधन, दुशासन, का हुआ अब अभ्युदय है
सभ्यता निर्वाण के इस
पटकथा की यंत्रणा का
बोझ सर लेकर मनुज क्या
तुम शिखर पर चढ़ सकोगे?
प्रश्न है यह यक्ष बोलो
क्या कभी तुम पढ़ सकोगे?
द्वेष- ईर्ष्या लोभ- लालच, आज को करते सुशोभित
अब विलासी भावना ही, कर रही मन को प्रलोभित
सभ्यताओं की चिताएँ, जल रही हैं आज पल – पल
दृश्य होता ही नहीं कुछ, दुर्विकारों का कहीं हल
आदमीयत को प्रताड़ित
सद्य करने की प्रथा को
सङ्ग तुम लेकर मनुज क्या
मुक्ति पथ पर बढ़़ सकोगे?
प्रश्न है यह यक्ष बोलो
क्या कभी तुम पढ़ सकोगे?
✍️ संजी शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार