वेदना
जिस्म तो यही रहा साँसें चलती गयी
तुम्हारी कमी अन्तस तक तोड़ती गयी
रात के सन्नाटे में तन्हाई शोर मचाती गयी
बनकर अश्रु आँखों के कोरों से छलकती गयी
सूनसान वीरान राहों पर तन्हा चलती गयी
समाज के तानों से पल पल खुद मरती गयी
खुशियाँ सारी रूठ गयी मौन व्यथा बनती गयी
साँसों का बस बोझ रहा जीवन अपना ढोती गयी
भूल गयी मैं जिन्दादिली, बेफिक्री क्या होती थी
जीती जाती इंसान , मूरत सी बनती गयी
एक एक रोटी प्रेम की विष रूप में ढल गयी
मखमली बिस्तर भी अंगारों सी तपिश देती गयी
पग पग बिछे काँटों से हृदय को छलनी करती गयी
नमक मले गए जख़्मो पर मैं मरहम खोजती गयी
-अर्चना शुक्ला”अभिधा”